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एक समालोचनात्मक अध्ययन
काव्य शक्ति का चरम दिग्दर्शन नहीं तो क्या है ? फिर भी वह ध्वनित वस्तु ही प्रधान है, ध्वनित करने की शैली और सामग्री नहीं ।
डॉ. श्यामसुन्दरदास का मत है कि “सन्तों की विचारधारा सत्य की खोज में बही है, उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवनधारा के प्रवाह से भिन्न नहीं ।
डॉ. कोमलसिंह सोलंकी कहते हैं कि - "सन्त कवि साधक है, कविता उनका कर्म नहीं है, अनुभूति ही उनके लिए प्रधान है।
डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का कथन है - "निर्गुणियों के लिए काव्य का कोई मूल्य नहीं। उनके लिए कविता का उद्देश्य एक साधन मात्र है । वे सत्य के प्रचारक थे और कविता को उन्होंने सत्य के प्रचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन मान रखा था। वे केवल थोड़े से शिक्षितों के लिए ही नहीं कहते थे, उनका लक्ष्य उन सर्वसाधारण हृदयों पर अधिकार करना था जो जनता के प्रधान अंग थे। संस्कृत और प्राकृत जो धर्मग्रन्थों तथा काव्य के लिए भी परिष्कृत भाषाएँ समझी जाती थी, उनके सामने उपेक्षित बन गयी।" * एक स्थान पर वे लिखते हैं - "निर्गुण सम्प्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने सर्वजनोपयोगी उपदेशों के लिए जनभाषा हिन्दी को ही अपनाया था। इसलिए उसका प्रतिरूप हिन्दी के काव्य साहित्य में सुरक्षित है । सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि अनेक कारणों ने मिलकर इस आन्दोलन के रूप में वह नवीनता और भाव की वह गहनता प्रदान की जो इसकी विशेषता है।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि “इस पंथ का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा; क्योंकि उसके लिए न तो इस पन्थ में कोई नई बात थी, न नया आकर्षण । संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता, जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता । पर अशिक्षित और निम्नश्रेणी की जनता पर इन संत महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है । उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की 1, कबीर- डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 220 2. हिन्दी साहित्य- डॉ. श्यामसुन्दरदास पृष्ठ 155 3. नाथपंथ और निर्गुण सन्त काव्य - डॉ. कोमलसिंह सोलंकी पृष्ठ 31 4. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय- डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल पृष्ठ 340 5. वही पृष्ठ 2