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महाकवि भूधरदास
हैं, विपत्ति के क्षणों में दुविधा और किंकर्तव्यविमूढ़ता के क्षणों में मानव के लिए सुख-सन्तोष देने वाले होते हैं । सन्त साहित्य में इनको अपनाने, जीवन में उतारने पर जोर दिया गया है। सत्य, दया, क्षमा, सन्तोष आदि गुणों को ग्रहण करने तथा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि दोषों को त्यागने का उपदेश सन्तों ने अनेक प्रकार से दिया है । कबीर कहते हैं -
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कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय || अहंकार तथा क्रोध को त्याज्य बतलाते हुए कहा गया है -
कोटि करम लागै रहै, एक क्रोध के लार । किया कराया सब गया, जब आवा अहंकार ।।
महान् व्यक्ति को क्षमा धारण करने की प्रेरणा देते हुए कथन है छिमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात । कहा बिस्नु को घटि गयो, जो भृगु मारी लात | एक स्थान पर कहा है -
"कुटिल वचन साधु सह और सौं सहा न जाय" ।
सन्त पलटूदास दया का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि वही पीर है, जो दूसरे की पीर जानता है -
पलटू सोई पीर है जो जाने पर पीर । जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ।। सन्तोषको सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है।
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गोधन गजधन वाजिधन और स्तन थन खान । जब आवै सन्तोष धन सब धन धूरि समान ॥
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काम-भोग का विरोध करते हुए कबीर ने कहा है कि जिस तरह सूर्य के प्रकाश से सामने रात्रि की स्थिति असंभव है, ज्ञान के प्रकाश में अज्ञान का रहना असम्भव है । उसी तरह जहाँ काम प्रबल है, वहाँ प्रेम की स्थिति असम्भव है। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ काम नहीं रह सकता -
भासै ।
सूर परकास तहं रैनि कह पाइए रैन परकास नहिं सूर ज्ञान परकास अज्ञान तहं पाइए, होय अज्ञान तहं ज्ञान नासै
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