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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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___3. भूधरदास द्वारा इष्ट का नाम स्मरण करने पर भी भावपूर्वक नाम लेने से कार्यसिद्धि होने का विधान किया गया है; मात्र नाम लेने से कार्यसिद्धि नहीं होती है । इसीप्रकार नामस्मरण की महिमा बतलाने पर भी भाव की ही महिमा है; क्योंकि जैसे भाव होते हैं, वैसा ही फल प्राप्त होता है । नाम लेने से फल में अतिशयता का आरोप होने पर भी सहज ज्ञातृत्त रहता है । कर्तृत या अतिशयता का कथन व्यवहारनय से किया जाता है।
4. गुरु का महत्व सन्तसाहित्य और भूधरसाहित्य में समान होने पर भी भूधरसाहित्य में गुरु संज्ञा, सिर्फ आचार्य, उपाध्याय और साधु की ही होती है. अन्य किसी की नहीं । यद्यपि लोक में माता-पिता एवं शिक्षा गुरु को भी गुरु माना जाता है, परन्तु वास्तव में धर्मगुरु धर्म में श्रेष्ठ व्यक्ति ही माने जा सकते हैं और वे आचार्य, उपाध्याय और साधु ही हैं। भूधरदास द्वारा गुरु की महिमा. गुरु का स्वरूप बतलाते हुए गुणपरक दृष्टि से की गई है । उनके द्वारा प्रतिपादित गुरु के गुणों का कथन जैनधर्मसम्मत्त है, जो सन्तों से अपना वैशिष्ट्य रखता
5. हिन्दी के कबीर आदि निर्गुण सन्त गुरु या आचार्य परम्परा को बहुत अधिक महत्व देते हैं; जबकि भूधरदास जिस जैनसद्गृहस्थ रूप सन्त या सज्जन व्यक्ति के रूप में माने गये हैं, उसकी कोई आचार्य या गुरुपरम्परा नहीं है।
6. सन्तकाव्य पढ़े लिखे लोगों में आदरणीय नहीं माना गया, जबकि भूधरसाहित्य सबके द्वारा सम्मानीय समझा गया।
7. प्राय: सन्तकवि निम्न वर्गों से आविर्भूत हुए और उनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायों में भी प्राय: निम्नवर्ग ही सम्मिलित हुआ। परन्तु भूधरदास लोकमान्य उच्च कुल से सम्बन्धित थे तथा उनके द्वारा इस तरह का कोई सम्प्रदाय प्रवर्तन भी नहीं हुआ, जिसमें निम्न वर्ग के लोग शामिल हुए हों।
8. सन्तों की रचनाएँ साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट नहीं मानी गई; परन्तु भूधरदास की रचनाएँ साहित्यिक दृष्टि से भी उच्चकोटि की हैं।
1. गुरुस्तुति - भूधरदास : प्रकीर्ण साहित्य ते गुरु मेरे मन नसो