________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
40.
41.
42.
43.
44.
45.
46.
47.
48.
49.
50.
431
चूंकि सन्तों में स्वाश्रय एवं पुरुषार्थ की भावना प्रबल होती है, वह अपने आत्मगुणों को विकसित कर स्वयं भगवान बन जाना चाहता है। भक्त स्वयं भगवान नहीं बनना चाहता, अपितु उसका अनन्य दास बनकर ही कृतकृत्य हो जाता है । इस दृष्टि से वैदिक धर्म-परम्परा मुख्यतः भक्तिकाव्य की परम्परा है तथा श्रमण परम्परा सन्त काव्य की परम्परा है; क्योंकि उसमें आत्मा से परमात्मा बनने की साधना पद्धति का विधान है। इसी दृष्टि से भूधरसाहित्य भी सन्त साहित्य के निकट माना जा सकता है; क्योंकि उसमें भी स्वाश्रय एवं पुरुषार्थ द्वारा भगवान बनने की विधि बतलाई गई है।
सन्तसाहित्य के समान भूधरसाहित्य भी भावात्मक एवं अनुभूतिप्रधान है ।
जिसप्रकार सन्त साहित्य का मूल लक्ष्य सत्य का निरूपण, विबेचन एवं प्रचार-प्रसार है; उसीप्रकार भूधर साहित्य का भी है I
जिसप्रकार सन्तसाहित्य में जन-जन के हित एवं उद्बोधन की भावना है उसीप्रकार साहित्य श्री सर्वसाधारण के कल्याण के है
लिए रचा गया
I
जिसप्रकार सन्तों की भाषा में अनेक भाषाओं के शब्द मिल गये हैं । उसी प्रकार भूधरदास की भाषा में भी अनेक भाषाओं के शब्द पाये जाते हैं ।
सन्तसाहित्य की भाषा के समान भूधरसाहित्य की भाषा भी सरल, सहज, कृत्रिमताविहीन एवं जनसाधारण तक पहुँचने में समर्थ है। भूधरदास की उपदेशप्रधान शैली और सन्तों की उपदेशप्रधान शैली में काफी समानता है। I
छन्दों के प्रयोग, विभिन्न रागों का व्यवहार एवं पदों की शैली दोनों साहित्य में समान रूप से पाई जाती है।
दोनों का प्रतिपादन तत्कालीन देशभाषा जनभाषा में हुआ है।
विनय का महत्त्व दोनों में है ।
दोनों साहित्य के मूल में धार्मिक एवं आध्यात्मिक भावना समान है।