________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
413 एते पै अभाग धन जीतब सौ धरे राग, होय न विराग जानै रहूँगौं अलग मैं।
आँखिन विलौकि अंध सूसे की अंधेरी करे,
ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं ।' 17. अवस्थाओं का वर्णन एवं आत्महित की प्रेरणा :- कवि भूधरदास ने अपने साहित्य में मानववा की तार, दुष्का गर्व इस अवस्था का वर्णन करते हुए आत्महित के लिए सचेत रहने की प्रेरणा दी है -
बाल अवस्था भई वितीत । तरूलाई आई निज रीत ।। सो अब बीती जरा पसार । मरन दिवस यों पहुंचे आय ।। बालक काया कुंपल सोय । पत्ररूप जोबन में होय ॥
पाको पात जरा तन करै। काल बयारि चलत झर परै ।। मरण के पूर्व सचेत होने की प्रेरणा देते हुए कवि का कथन है -
पानी पहले बंधे जो पाल । वही काम आवै जलकाल ।। यही जान आतमहित हेत! करै विलम्ब न संत सुचेत॥
आज काल जे करत रहाहि । ते अजान पीछे पछताहिं ।' कवि द्वारा यही बात दूसरे शब्दों में इस प्रकार कही गई है -
जौलौं देह तेरो काहू रोगसौं न घेरी जौलौं, जरा नाहिं नेरी जासों पराधीन परिहै। जौलौं जमनामा बैरी देय ना दमामा जौलौं, मानै कान रामा बुद्धि जाइ ना बिगरि है ।। तौलौ मित्र मेरे निज कारज संवार ले रे,
पौरुष थकेंगे और पीछे कहा करि है। 1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 35 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 4, पृष्ठ 29 3. पार्दपुराण,कलकत्ता, अधिकार 4, पृष्ठ 29