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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन सारी पवित्रता नष्ट हो जाती है और उसे पी लेने पर तो सारी सुध-बुध ही हृदय से जाती रहती है । मदिरा पीने वाला माता आदि को भी पत्नी समझने लगता है। इस दुनिया में मदिरा के समान त्याज्य वस्तु अन्य कोई नहीं है। इसलिए यह उत्तम कुलों में ग्रहण नहीं की जाती है तथापि जो मूर्ख मदिरा की प्रशंसा करते हैं, उन्हें धिक्कार हैं, उनकी जीभ जल जावे । ' मांस के दोष एवं उसके त्याग का उपदेश : 393 मांस की प्राप्ति त्रस जीवों का घात होने पर ही होती है। मांस का स्पर्श, आकार, नाम और गन्ध सभी हृदय में ग्लानि उत्पन्न करते हैं। मांस का भक्षण नरक जाने की योग्यता वाले निर्दयी, नीच और अधर्मी पुरुष करते हैं, उत्तम कुल और कर्मवाले तो इसका नाम लेते ही अपना शुद्ध सात्त्विक भोजन तक छोड़ देते हैं। मांस अत्यन्त निंदनीय है, अत्यन्त अपवित्र है और सदैव जीव समूह का निवास स्थान है। यही कारण है कि मांस सदैव अभक्ष्य बतलाया गया है। हे दयालु चित्तवाले ! तुम इस मांसभक्षण रूप दोष का त्याग करो। इसी बात को अन्य शब्दों में भूधरदास द्वारा इस प्रकार कहा गया है - रजवीरज सों नीपजै (ज्ञानी) सो तन मांस कहावै रे । जीव होते बिन होय ना (ज्ञानी) नाव लियौ घिन आवे रे || मधु के दोष एवं उसके त्याग का उपदेश : मधु महान अपवित्र पदार्थ है। मधु मक्खियों का मल है और बहुत से त्रस जीवों के घात से उत्पन्न होता है। मधु की एक बूंद भी मधु मक्खियों की हिंसारूप होती है। स्वयं पतित मधु में उसी जाति के अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। उसके खाने से महती हिंसा होती है; इसलिए मधु का सेवन नहीं करना चाहिए। 4 1. (क) जैनशतक, भूधरदास, पद्म 48 एवं 49 (ख) सड़ि उपजै कीड़ा भरी ( ज्ञानी) मद दुर्गन्ध निवासो रे । छीया सो शुचिता मिटै (ज्ञानी) पीयां बुद्ध विनासो रे ॥ 2. जैनशतक, भूधरदास, पद्य 52 3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 86 4. पुरुषार्थसिद्धयुपाम, अमृतचन्द्राचार्य, श्लोक 65 से 71
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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