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महाकवि भूघरदास :
तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने वाले मुनिराज काया और कषाय को कृश (क्षीण) करते हुए संयमरूपी गुण का पालन करते हैं । तप के बल से अनेक ऋद्धयाँ उत्पन्न हो जाती है । राग-द्वेष का नाश हो जाता है। जहाँ वन में वे मुनिराज तप करते हैं, वहाँ सबकी विपत्ति टल जाती है; सूखे-सरोवर पानी से भर जाते हैं, सब ऋतु के फल फूल फलने लगते हैं; हंस, सर्प, मोर, विलाब, सिंह आदि जातिविरोधी जीव वैर छोड़कर आपस में प्रेम करने लगते हैं। वे मुनिराज समतारूपी रथ पर सवार होकर मोक्षरूपी पथ पर गमन करते हैं। उनके गुणों के सम्बन्ध में पूधरदासजी का कथन है -
सोहे साधु बड़े समतारथ, परमारथ पथ गमन करें। शिवपुर पहुंचन की उर वांछा, और न कछु चित चाह धरै ।। देह विरक्त ममत्व बिना मुनि सबसों मैत्री भाव बहै। अस्तम लोन अदीन अनाकुल, गुन वरनत नहि पार लहै ।' देशचारित्र या गृहस्थ धर्म :
सम्यग्चारित्र के वर्णन में यह बात स्पष्ट की गई है कि सम्यग्दर्शनपूर्वक ही सम्यग्चारित्र होता है, सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्चारित्र नहीं होता है । अत: जिसे सम्यग्दर्शन हो गया है ऐसा सम्यग्दष्टि - सम्यग्ज्ञानी जीव राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यग्चारित्र अंगीकार करता है। जहाँ मुनिराज अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणी, एवं प्रत्याख्यानावरणी कषाय के अभाव में अन्तरंग में सकल चारित्ररूप आत्मशुद्धि (वीतरागता) प्रकट करके बाह्य में 28 मूलगुणरूप व्रतों का पालन करते हैं, वहाँ सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानावरणी कषाय के अभाव में अन्तरंग में देशचारित्ररूप आत्मशुद्धि (वीतरागता) प्रकट करके बाह्य में हिंसादि पाँच पापों के एकदेशत्यागरूप पाँच अणुव्रत, अणुव्रतों के रक्षण और अभिवृद्धिरूप तीन गुणव्रत एवं महाव्रतों के अभ्यासरूप चार शिक्षाव्रत - इन बारह व्रतों का पालन करता है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ का आचार एक प्रकार से मुनि-आचार की नींवरूप होता है; उसी के आधार पर मुनिआचार
142. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4 पृष्ठ 37 3. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंझानः ।। रागद्वेषनिवृत्ये चरणं प्रतिपद्यते साधु : ॥ रलकाण्डश्रावकाचार,समन्तभद्राचार्य,श्लोक 47