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महाकवि भूधरदास :
पाँच महाव्रत - __हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - ये पाँच पाप हैं। मुनिराज को छह काय ( पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावरकाय और एक त्रसकाय) के जीवों का सर्वथा घात न करने तथा राग-द्वेष, काम-क्रोधादि भावों की उत्पत्ति न होने से अहिंसा महाव्रत होता है। स्थूल और सूक्ष्म - दोनों प्रकार का झूठ न बोलने से सत्य महाव्रत, कोई भी वस्तु, यहाँ तक कि मिट्टी और पानी भी, बिना दिये ग्रहण नहीं करते हैं; इसलिए अचौर्य - महाव्रत, आत्मा में लीन होने और अारह हजार साल के भेदों का पालन करने से ब्रह्मचर्य महाव्रत तथा चौदह प्रकार का अंतरंग और दस प्रकार का बहिरंग परिग्रह न होने के कारण परिग्रह त्याग महाव्रत होता है। • पाँच समिति -
प्रमाद या असावधानी छोड़कर चार हाथ जमीन देखकर चलना ईर्या समिति है। हित-मित-प्रिय, सर्व शंकाओं को दूर करने वाले और मिथ्यात्वरूपी रोग का नाश करने वाले वचन बोलना पाषा समिति है। 46 दोषों को टालकर ( दूर करके) उत्तम कुल वाले श्रावक के घर शरीर-पोषण हेतु नहीं अपितु तपवृद्धि के लिए रसों का त्यागकर नीरस भोजन लेना एषणा समिति है । पवित्रता के साधन कमण्डलु को, ज्ञान के साधन शास्त्र को एवं संयम के साधन पीछी को देखकर ग्रहण करना और देखकर रखना आदान-निक्षेपण समिति है। मल-मूत्र श्लेष्मा आदि शरीर के मैल को जीवरहित स्थान देखकर त्यागना व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति है। मुनिराज इन पाँचों समितियों का पालन करते
तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियजय -
आत्मा के ध्यान में लगने से मन-वचन-काय की चेष्टाओं का रुक जाना क्रमश: मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है। स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण-इन पाँचों इन्द्रियों के विषय शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द में राग या द्वेष नहीं करना-पाँच इन्द्रियों को जीतना है। मुनिराज तीन गुप्तियों को पालते हैं तथा पाँच इन्द्रियों को जीतते हैं।