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महाकवि भूधरदास :
जिस प्रकार अक्षरहीन मंत्र विष की बाधा को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यग्दर्शन संसार के दुःखों को दूर करने में समर्थ नहीं है। इसलिए अष्ट अंग सहित सम्यग्दर्शन का निर्णय हृदय में करना चाहिए। अर्थात् सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए
अंगहीन दर्शन जग माहि। भदख मेटन समरथ नाहि ॥ अक्षर ऊन मंत्र जो होय । विष बाधा मेटे नहिं सोय ।। ताते यह निरनय उन आन । यह हिरदै सम्यक सरधान । ' देव-शास्त्र-गुरु
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ के स्वरूप •की तरह देक्शास्त्र-गुरु का स्वरूप जानना भी अत्यन्त आवश्यक है। इस संबंध में आचार्य कुन्दकुन्द का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है
जो जाणदि अरहन्तं, दवत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खुल जाद तस्स लयं ।'
जो द्रव्य-गुण-पर्याय से अरहंत को जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है और उसका दर्शनमोह नष्ट हो जाता है अर्थात् उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है।
देव - जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो, वही सच्चा देव है।' सच्चे देव के मोह-राग-द्वेष, जन्म-मरण, भूख प्यास आदि अठारह दोष नहीं होते हैं, इसलिए उसे वीतरागी कहते हैं ! वह तीन लोक और तीन काल के समस्त पदार्थों को उनके अनन्तगुण - पर्यायों सहित एक समय में एक साथ स्पष्ट रूप से जानता है, इसलिए वह सर्वज्ञ कहलाता है । मोक्षमार्ग का प्राणिमात्र के हित के लिए उपदेश देने से वही हितोपदेशी है।
1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 2 पृष्ठ 11 2. प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य, गाथा 80 3. जैनशतक, पूधरदास, छन्द 46 4. दोष अठारह वरजित देव, तिस प्रभु को पूजै बहु भेव ॥ 5. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 46