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महाकवि भूधरदास :
होकर सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है। वह परमात्मा कहलाता है। परमात्मा के अनंत-दर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य प्रकट हो जाते हैं।'
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा अथवा आस्त्रव-बन्ध, सवंर निर्जरा और मोक्ष तत्त्व तो परिर्वतनशील तत्त्व हैं तथा इन सभी पर्यायों में विद्यमान सामान्य ज्ञानादिरूप स्थिर तत्त्व है वह आत्मतत्त्व या जीवतत्त्व है। यह जीव तत्व आत्रवादि नौ तत्त्वरूप होकर भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ता है। ____ दृष्टि (श्रद्धा) की अपेक्षा वह जीव तत्त्व ही उपादेय है। उसे न जानने, न मानने एवं न अनुभवने से आत्मा बहिरात्मा रहता है तथा जानने, मानने एवं अनुभवने से अन्तरात्मा बन जाता है तथा उसी में पूर्णत: लीन होने पर परमात्मा हो जाता है । अत: दृष्टि की अपेक्षा तो उपादेय एक सामान्य जीवतत्त्व ही है, किन्तु प्रगट करने की दृष्टि से अन्तरात्मा और परमात्मा भी उपादेय है। बहिरात्मा-दशा सर्वथा हेय है । उस परम उपादेय ज्ञान दर्शन स्वभावी एक शुद्ध निज आत्मतत्त्व (जीवतत्त्व) में उपयोग को स्थिर करने से, उसमें ही लीन रहने से सर्व आत्रवादि विकारीभाव नष्ट होते हैं तथा अतीन्द्रिय आनन्दरूप मोक्षदशा प्रगट होती है।
अजीवतत्व कथन • ज्ञान दर्शन स्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य अजीव हैं । * पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पाँच अजीव या जड़तत्त्व के भेद हैं।' 1. योगसार और परमात्मप्रकाश, योगीन्दुदेवकृत पर आधृत .2. नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति
• समयसार कलश, अमृवचन्द्र आचार्य कलश 7 3. अहमिक्को खलु सुनो जिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो ।
तम्हि ठिओ तच्चितो सब्चे एदे खयं णेमि ॥
समयसार, कुन्दकुन्दाचार्य गाथा 73 4. "तद्विपरीतलक्षणोजीव'
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1 सूत्र 4 की टीका। 5. पुद्गल धर्म अधर्म नम, काल नाम अवधार।
ये अजीव जड़तत्व के, भेद पंच परकार ।। पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 82