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महाकवि भूधरदास :
कहते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती परमऋद्धिधारी किसी मुनि के तत्त्व में शंका होने पर अपने तपोबल द्वारा मूल शरीर को छोड़े बिना मस्तक से एक हाथ प्रमाण पुरुषाकार स्फटिक की तरह स्वच्छ और मनोहर शुभ पुतला निकलता है । वह केवली या श्रतकेवली के पास जाकर दर्शन करके शंका-निवारण करके पुनः अपने स्थान में प्रवेश करना आहारक समुद्घात है। केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद मूल शरीर को छोड़े बिना दंड, कपाट, प्रतर और लोकपुरण क्रिया करते हुए केवली के आत्मप्रदेशों का फैलना केपसी समुद्वा है। पारगतिक और आहारक समुद्घात एक दिशा में होते हैं तथा शेष पाँच समुद्घात सभी दिशाओं में हो सकते हैं।
संसारित्व और सिद्धत्व - संसारी जीव स्थावर और त्रस - दो प्रकार के होते हैं। उनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति- ये एक इन्द्रिय वाले स्थावर जीव हैं और दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, और पाँच इन्द्रिय- ये चार प्रकार के चलने फिरने वाले त्रस जीव हैं । संख, सीप, कोड़ी, कृमि, जोक इत्यादि दो इन्द्रिय, चीटी, दीमक, नूँ इत्यादि तीन इन्द्रिय, मक्खी, खटमल, भौरा आदि चार इन्द्रिय, देव, नारकी, मनुष्य तथा पशु पाँच-इन्द्रिय जीव हैं। पंचेन्द्रिय जीव मनसहित (संज्ञी ) और मनरहित (असंज्ञी) - दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार बादर (स्थूल) और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय - ये सातों पर्याप्त और अपर्याप्त दो प्रकार के होकर चौदह जीव समास होते हैं । ' आहार, शरीर. इन्द्रिय, स्वासोच्छ्वास, भाषा और मन-ये छह पर्याप्तियाँ हैं। एकेन्द्रिय जीव के चार, दो इन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों के पाँच और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के छह पर्याप्तियाँ होती हैं।
संसारी जीव के चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणास्थान होते हैं।
1. पालपुरापा, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 80-81 2. पाचपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 81 3. मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अदिरत सम्यक्त्व, देशसंयत,प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत,
अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म सांपराय, उपशान्तमोह, क्षीण-मोह,संजोग केवली,
अयोग केवली -ये 14 गुणस्थान है। 4. गति, काय, इन्द्रिय, कषाय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, पव्यत्व, सम्यक्त्व,
संज्ञित्व और आहार- ये 14 मार्गणास्थान है।