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महाकवि भूधरदास:
दर्शनोपयोग के चार भेद हैं। मति 1 अज्ञान (कुमति) श्रुत- अज्ञान (कुश्रुत) अवधि- अज्ञान (कुअवधि) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान- ये आठ प्रकार का ज्ञानोपयोग होता है। इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष हैं तथा लोकालोक सहित अनंत द्रव्यपर्यायों को एक साथ जानने वाला केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार दर्शनोपयोग के भेद हैं। इस प्रकार आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन व्यवहार नय से जीन का लक्षण है तथा ज्ञान और शुद्ध दर्शन जीव के का लक्षण हैं। 1
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कर्तृत्व - उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव घट, पट आदि परद्रव्यों का कर्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का कर्ता है तथा अशुद्ध निश्चय नय से मोह-राग- द्वेष आदि अशुद्ध भावों का कर्ता है तथा निश्चय नय से ज्ञान-दर्शन आदि शुद्ध भावों का कर्ता
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1. (क) दो प्रकार उपयोग बखान दर्शन चार आठ विधिज्ञान ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 79
(ख) 'स: द्विविधोऽष्ट चतुर्भेद: तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 2 सूत्र 9
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अब सुन वसुविधि ज्ञान विधान । मतिश्रुति अवधि ज्ञान अज्ञान ।। मनपर्जय केवल निर्दोष । इनके भेद प्रत्यक्ष परोक्ष ॥ मति सुति ज्ञान आदि के दोय। ये परोक्ष जाने सब कोय | अवधि और मन परजय ज्ञान। एकदेश परतच्छ प्रमान ॥ केवलज्ञान सकल परतच्छ। लोकालोक विलोकन चच्छं । जहाँ अनन्त दरब परजाय। एक बार सब झलकें आय ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 79
3. चक्षु अचक्षु अवधि अवधार। केवल ये दर्शन चार ॥ 4. दर्शन चार आठ विधिज्ञान। ये व्यवहार चिन्ह जी जान ||
निचे रूप चिदातम येह । शुद्ध ज्ञान दर्शन गुन गेह ॥ वही पृष्ठ 79
5. कल्पित असद्भूत व्यवहार तिस नय घटपटादि करतार ॥ अनुपचारित अजथारथ रूप । कर्मपिंड करता चिद्रूप अब अशुद्ध निहचै बल घरै, तब यह राग दोष को करे ॥ यही शुद्ध निह कर जीव । शुद्ध भाव करतार सदीव ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 79