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महाकवि भूधरदास : नाति हो अनेकन है. नही ना की दृष्टि से एसान्त है । यद्यपि जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी एकान्त हो जायेगा। अत: जैनदर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है । जैनदर्शन न सर्वथा एकान्तवादी है और न सर्वथा अनेकान्तवादी । यह कथंचित् एकान्तवादी और कथंचित् अनेकान्तवादी है। इसी का नाम अनेकान्त में अनेकान्त है। आचार्य समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्र में कहते है कि --
अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपिन्नयात् ।। प्रमाण और नय हैं साधन जिसके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्तस्वरूप है; क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्तस्वरूप एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरूप सिद्ध है।
जैनदर्शन के अनुसार एकान्त दो प्रकार का होता है सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त और निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है। इसी प्रकार अनेकान्त भी दो प्रकार का होता है -सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । सापेक्ष नयों का समूह अर्थात श्रुतप्रमाण सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्षनयों का समूह अर्थात प्रमाणाभास मिथ्या अनेकान्त है। कहा भी
जे वत्यु अणेयन्त एयंतं पि होदि सविपेक्खं ।
सुयणाणेण णएहि य णिरवेक्वं दीसदे णेव ।। ' जो अनेकान्तरूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्तरूप भी है । श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और नयों की अपेक्षा एकान्तरूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का रूप नहीं देखा जा सकता है। अनेकान्त में अनेकान्त की सिद्धि करते हुए राजवार्तिक में आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं___ “यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष 1. कार्तिकेयानुपेक्षा- स्वामी कार्तिकेय गापा 261