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एक समालोचनात्मक अध्ययन
313 अभिव्यक्ति प्रदान की है। इतना ही नहीं कवि मानव शरीर के उत्तरोतर परिवर्तन की समानता वक्षों के पत्रों से करता है। कवि धन-यौवन आदि की क्षणभंगुरता की तुलना इन्द्रधनुष की नश्वरता से करता है। ये सब इन्द्रधनुष के समान लुभावने, किन्तु क्षणस्थायी होते हैं।
रूपक - उपमा की भाँति कवि रूपक अलंकार के प्रयोग में नवीनता प्रदर्शित करता है । रीति काल में रूपक अलंकार के अन्तर्गत उपमान प्राय: रूढिंगत व्यवहत हुए हैं, किन्तु इस परम्परा में भूधरदास को परिगणित नहीं किया जा सकता । भूधरदास ने रूपक अलंकार में साभिप्राय मौलिक उपमानों का उपयोग किया है । काल को रहट, रात दिन को जल भरने वाली रहट की बाल्टियाँ और इस रहट को चलाने वाले सूरज-चन्द्रमा बैल हैं। कवि का यह प्रयोग वस्तुत: अभिनव किन्तु भावाभिव्यक्ति के लिए अत्यन्त सशक्त है। इसके साथ ही कवि के काव्य का मूल स्वर भक्ति और वैराग्य पूर्ण होने के कारण हिन्दी भक्तिकालीन रूपकों की परम्पस ने कवि को प्रभावित किया है। भक्तिकालीन निर्गुण कवियों द्वारा व्यवहृत तोता, चरखा, ठगिनी आदि उपमानों का भूधरदास ने भी उपयोग किया है।'
कवि ने “वीर हिमाचल तें निकसी" - जिनवाणी स्तुति में शारदा जिनवाणी को गंगा नदी का रूपक तथा *अब मेरे समकित सावन आयो" पद में सम्यक्त्व को सावन का रूपक देते हुए श्रेष्ठत्ता का परिचय दिया है।
उत्प्रेक्षा - रूपक की तरह कवि ने उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग में भी मौलिकता का परिचय दिया है। कवि द्वारा आकाश में उठते हुए काले धुएँ को पाप
1. मालक काया कूपल-पार्श्वपुराण पृष्ठ 28 2. रात दिवस घट माल सुभाव -पार्श्वपुराण पृष्ठ 28 3. (अ) मेरे मन सूवा, जिन पद पीजरे बसि, यार लाव न माप रे।
तू क्यों निचिन्तों सदा तोको तकत काल मजार रे | भूधरविलास पद 5 (आ) चरखा चलता नाहि, चरखा हुआ पुराना।
प्रकीर्ण पद तथा हिन्दी पद संग्रह कस्तूरचन्द कासलीवाल सन् 1965 (इ) सुनि ठगनि माया तें सब जग ठग खाया। जो इस ठगनि को ठग बैठे, में तिसको सिर नाया ।
- भूधरदास पृष्ठ 8