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महाकवि भूघरदास : को न में परिवर्तित करना - प्रान, तारन, गुन, तुन, चरन, सरन, पुरान, पुन्य, पानी, वानी, दशलाछनी, इत्यादि ।
क्ष के स्थान पर छ का प्रयोग करना - पंछी छिन, लीन, ललमी. परनाल, छोभ, लच्छन इत्यादि ।
कहीं कहीं (व ) वर्ण का कार्य "ओ" और "उ" की मात्रा से निकाला गया है - विभो (वैभव), भौन (भवन), गौन (गवन), पौन (पवन) परभौ (परभव), जौलों (जबलों), औगुन (अवगुण) , सुर (स्वर), धुजा (ध्वजा), धुनि (ध्वनि), सुरग (स्वर्ग) आदि। . बदले हुए वर्णों वाले शब्दों का भूधरसाहित्य में बहुलता से प्रयोग हुआ है । यथा - दिवायर (दिवाकर), जच्छ (यक्ष), जम (यम), परजाय (पर्याय), जोवन (योवन), विचच्छन (विचक्षण) , लच्छन (लक्षण) , लच्छमी, (लक्षमी) न्याव (न्याय), उपगारी (उपकारी), कारिमा (कालिमा), लोय (लोक) लोयन (लोचन) लाह (लाभ), रिषभ (ऋषभ), निहचल (निश्चल) इत्यादि ।
भूधरसाहित्य में मात्रा बढ़े हुए शब्द भी पाये जाते हैं। यथा - जिहान (जहाना, दिना (दिन), लागे (लगे) , नीसतारे (निसतरे), छिन (क्षण), पिछताया (पछताया) , तिरना (तरना), लसकरि (लश्कर) इत्यादि।
___मात्रा घटे हुए शब्द भी पाये जाते हैं। जैसे - प्रतमा (प्रतिमा), महूरत (मुहूर्त), अवास (आवास), अनाद (अनादि), दवानल (दावानल) इत्यादि । चूंकि कवि द्वारा रचित सभी रचनाओं की भाषा एक जैसी नहीं मिलती है ।अत: विभिन्न रचनाओं के आधार पर भाषा का विवेचन किया जाता है; जो निम्नलिखित है:
1.पार्श्वपुराण की भाषा :- पार्श्वपुराण की भाषा सरल एवं प्रभावात्मक है। मधुरता और सरसता उसमें सर्वत्र विद्यमान है। प्रसादगुण उसकी महत्वपूर्ण विशेषता है । वह कोमलकान्त पदावली समन्वित है । शब्दों का प्रयोग सार्थक, सुबोध एवं स्वाभाविक रूप में हुआ है। वाक्यांशों का सुदृढ़ प्रयोग, सुगठित शब्दयोजना, भाषागत ध्वन्यात्मकता एवं लाक्षणिकता सर्वत्र दर्शनीय है ।
शब्द समूह - शब्दों के स्रोत के रूप में पार्श्वपुराण में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी आदि सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है।
तत्सम • कमल, अनुपम, महिमा, मंगल, विगत, पूजा, लाभ, उद्यम, ध्यान, भक्ति, शक्ति, कथा, शोक, भ्रमर, समुद्र, उपमा, उथान, नदी, पर्वत, गिरि, नगर,