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________________ 264 महाकवि भूधरदास : कवि ने इसकी रचना आगरा में गुलाबसिंह तथा हरीसिंह शाह के वंशज धर्मानुरागी पुरुषों के कहने से की है। कवि उनकी प्रेरणा से अपने आलस्य का अंत मानते हुए उनका आभार व्यक्त करता है। अन्त में कवि जैनशतक के रचनाकाल का उल्लेख करते हुए ग्रंथ समाप्त करता है-. सतरह से इक्यासिया, पोह पाख तमलीन। तिथि तेरस रविवार को शतक समापत कोन ।' पदसंग्रह या भूधरविलास का भावपक्षीय अनुशीलन जैसा कि पूर्व में तर्कसंगत ढंग से स्पष्ट किया जा चुका है कि "भूधरविलास" और "पदसंग्रह" एक ही रचना है, दो पृथक् पृथक् रचनाएँ नहीं हैं। भूधरविलास के 80 पद तो “पदसंग्रह" के नाम से तथा &0 में से 53 पद “भूधरविलास” के नाम से प्रकाशित किये गये हैं। वस्तुतः वे दोनों रचनाएँ कवि के पदों का संग्रह ही हैं। हिन्दी साहित्य में “पद” काव्यरूप का प्रयोग आरम्भ से ही देखने को मिलता है । अपभ्रंशकालीन पद-साहित्य और सिद्धों के चर्या-पदों की स्पष्ट छाप हिन्दी पद-साहित्य पर दिखाई देती है । श्रृंगार और आध्यात्मिक पदों का प्रणयन हिन्दी के आरम्भ में ही दृष्टिगत होता है। "पद" शब्द के मूल आधार दो हैं-प्रथम आधार व्याकरण और दूसरा आधार संगीत है। जब कोई "शब्द" विभक्ति के साथ में आता है तब वह “पद” की संज्ञा प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए "राम" शब्द है परन्तु जब यही शब्द "राम ने रावण को मारा" आदि वाक्य में किसी विभिक्ति के साथ प्रयुक्त होता है तो पद की संज्ञा प्राप्त करता है । यही शब्द जब राग-रागनी के साथ उच्चरित होता है तब पद का रूप धारण कर लेता है । पद प्रणेता को राग-रागिनी का सम्यग्ज्ञान होता है। 1. जैनशतक छन्द 106 2. जैनशतक छन्द 107 3. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध, अध्याय 4
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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