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एक समालोचनात्मक अध्ययन
भारतीय संस्कृति के अनुरूप इस कवि के वयविश्व में असाम्प्रदायिकता दिखाई देती है; इसीलिए वह किसी व्यक्ति विशेष या इष्ट विशेष को नमस्कार नहीं करता, अपितु वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी - गुण वाले परमात्मा को नमस्कार करता है। चाहे उसका नाम ब्रह्मा, माधव, महेश, बुद्ध या महावीर कुछ भी क्यों न हो ? जिसमें ये गुण हैं, वह उस देव को बार-बार नमस्कार करता
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हस्तमल म निहारै ।
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पार उतारै ||
जो जग वस्तु समस्त, जगजन को संसार - सिंधु आदि-अन्त- अविरोधि, वचन सबको सुखदानी । गुण अनन्त जिन्हें माहिं दोष की नाहिं निशानी ॥ माधव महेश ब्रह्मा किधौ, वर्धमान कै बुद्ध यह। ये चिह्न जान जाके चरन, नमो-नमो मुझ देव वह ||'
इसप्रकार जैनशतक अपने आप में अनूठा ग्रंथ बन पड़ा है। इसलिए अनेक विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कई विद्वान इसके काव्य सौष्ठव पर मुग्ध हो गये हैं। जो भी व्यक्ति इसे पढ़ता है, उसका मन-मयूर नाचने लगता है । उसमें भक्ति, नीति, वैराग्य एवं अध्यात्म के भाव जागृत होने लगते हैं। डॉ. राजकुमार जैन के शब्दों में- “कवि ने इसमें ( जैनशतक में) अध्यात्म, नीति एवं वैराग्य की जो त्रिवेणी प्रवाहित की है, उसमें अवगाहन करके प्रत्येक सहृदय पाठक आत्मप्रबुद्ध हो सकता है।” पं. नाथूराम प्रेमी के अनुसार“ यह एक सुभाषित संग्रह हैं । इसीप्रकार बाबू कामताप्रसाद जैन इसे नीति विषयक अनोखी कृति मानते हैं।
1. जैनशतक छन्द 40
2. अध्यात्म पदावली - डॉ. राजकुमार जैन पृष्ठ 100
3. जैन साहित्य का इतिहास पं. नाथूराम प्रेमी पृष्ठ 12 जैन हितैषी 13/1
4. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास- बाबू कामताप्रसाद जैन पृष्ठ 104