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एक समालोचनात्मक अध्ययन
निरक्षरी निहकामता साई सेती नेह।
विधिया सूं न्यारा रहे,संतान को अंग एह ॥' सारी दुनियाँ दुखी है, सुखी अकेला संत है जिसने मन को जीत लिया है
तन परि सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो।
कहै कबीर सकल जग दुखिया,संत सुखी मन जीती हो।' शरीर केले का वन है, मन मदमत्त गज है, ज्ञान अंकुश है और संत महावत है -
काया कजरी वन अहै,मन कुंजर मैमंत
अंकुस ज्ञान रतन है,खेवट बिरला संत ॥' राम भक्ति में स्थिर एक सन्त ही है जिस पर लोभ की लहर का असर नहीं होता है -
जियरा जाहुगे हम जानी। आवैगी कोई लहरी लोभ की, बूढ़ेगा बिनु प्राणी।
कहै कबीर तेरा सन्त न जाइगा, राम भगति ठहरानी ॥' माया संतों की दासी है। जगदीश का स्मरण करते हुए सन्त माया का अनासक्त भोग करते हैं और जब चाहते हैं उसे लात मारकर छोड़ देते हैं -
माया दासी संत की, ऊभी देइ असीस।
बिलसी अस लातो छड़ी,सुमरि सुमरि जगदीश ॥' जिसके (ब्रह्म के लिए योग, यज्ञ और तप करना पड़ता है वे राम सदा सन्तों के पास रहते हैं। जो प्रसाद देवों को दुर्लभ हैं वे सन्त के पास सदा सुलभ हैं। भक्त वत्सल हरि इन सन्तों में ही विराजते हैं।
1. कबीर ग्रंथावली - डॉ. पारसनाथ तिवारी पृष्ठ 156, 24 2. वही पृष्ठ 52, 53, पद 90
3. वही पृष्ठ 228 साखी 2 4, वही पृष्ठ 54 पद 92
5. वही पृष्ठ 235 साखी 5