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महाकवि भूषरदास :
एवं घान्दोग्य उपनिषद्' में इसका प्रयोग " एक " एवं "अद्वितीय परमतत्त्व " के लिये एकवचन में किया गया मिलता है । गीता में “ ओम् तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः” कहकर सत् को ही ब्रह्म या परमात्मा तथा सत्य का वाचक भी कहा गया है। जबकि मूल रूप में “ सत् "शुद्ध अस्तित्व मात्र का वाचक है। "महाभारत " में इसका प्रयोग सदाचारी के अर्थ में हआ है तथा सन्त को आचार लक्षण वाला कहा गया है। " भागवत " में यह पवित्रात्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भागवतकार के अनुसार सन्त संसार को पवित्र करने वाले तीर्थों को भी पवित्र करने वाले होते हैं। भगवतगीता ” में सन्त का प्रयोग सद्भाव
और साधुभाव के अर्थ में हुआ है। भर्तृहरि ” ने सन्त शब्द का प्रयोग परोपकार परायण व्यक्तियों के लिये किया है। उनके अनुसार सन्त स्वेच्छा से दूसरों का हित करने में लगे रहते हैं। कालिदास ने इसका प्रयोग बुद्धिमान एवं सदसद्विवेकशील व्यक्ति के लिये किया है। “ धम्मपद " में इसका प्रयोग शान्ति के अर्थ में हुआ है।'
__ इस प्रकार सम्पूर्ण प्राचीन संस्कृत साहित्य में " सन्त " शब्द का प्रयोग पहले परमतत्व या अद्वितीय सत् रूपी ब्रह्मा के लिये तथा बाद में अनेक आदर्श एवं अनुकरणीय सत्गुणों से युक्त व्यक्तियों के लिये हुआ है।
मध्ययुगीन साहित्य में भी सन्त शब्द का यही अर्थ दृष्टिगोचर होता है। सम्पूर्ण निर्गुण और सगुण भक्ति साहित्य में सन्त शब्द का प्रयोग बहुलता से दिखाई देता है तथा उसका अर्थ भी अतिशय उदारता से वर्णित किया गया है।
निर्गुण भक्ति साहित्य के प्रतिनिधि कवि कबीर के मत से सन्त वे हैं जिनका कोई दुश्मन नहीं है, जो निष्कामवृत्ति वाले हैं, साईं से प्रीति करते हैं,
और विषयों से निर्लिप्त होकर रहते हैं। 1. " असदेव सौम्येदमम असीदेकमेवा द्वितीयं - द्यान्दोग्य उपनिषद दितीय खण्ड 1 2. आचारलक्षणो धर्मः सन्तश्चाचार लक्षण : महाभारत 3, प्रायेण तीर्थाभिगमावदेश : स्वयं ही तीर्थानि पुनंति सन्त : भागवत 1, 19, 8 4. समावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते : श्रीमद् भागवतगीता 17, 25 5, सन्त : स्वयं परहिवे विहिताभियोग : भर्तृहरि 6. पुराणमित्येव न साधु सर्व न चाधि काव्यं नवमित्यवधम् ।
सन्त : परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेन युद्धिः॥ मालविकाग्निमित्रम् कालिदास
अंक 1 7. अधिगच्छे पदे सन्तं संख रूप समं सुखं - भिक्खु बग्ग गाथा 9