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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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तेई अब जीवराश आये परलोकपास, लेंगे बैर देंगे दुख भई ना नवीनी है। ऊनही के भय को भरोसो जान कॉफ्त है
याहि डर डोकरा ने लाठी हाथ लीनी है।' इसीप्रकार वृद्ध व्यक्ति अपना सिर हिलाता और नीची दृष्टि किये क्यों डोलता है ? कवि ने इसकी बड़ी सुन्दर कल्पना की है।'
__ यह मनुष्य देह सर्वोत्तम है और समस्त अच्छे कार्यों के करने योग्य है परन्तु अज्ञानी मोहरूपी मदिरा के नशे में मदोन्मत्त होकर आत्मा-परमात्मा का ध्यान नहीं करता है और विषय भोगों में निरन्तर रत रहता है।'
धर्म साधन करने की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति को कवि सलाह देता
देव-गुरु साँचे मान साँचौ धर्म हिये आन, साँचो ही बखान सुनि साँचे पंथ आव रे। जीवन की दया पाल झूठ तजि चोरी टाल, देख ना विरानी बाल तिसना घटाय रे॥ अपनी बड़ाई परनिन्दा मत करे भाई यही चतुराई मद मांस को बचाव रे। साथ षटकर्म साधु-संगति में बैठ वीर,
जो है धर्मसाधन को तेरे चित चाव रे ।। साथ ही कवि सर्वज्ञ भगवान से प्रार्थना करता है कि जब तक मैं कर्मों का नाश करके मोक्ष का दरवाजा नहीं खोल लेता तब तक मुझको आपकी सेवा का अवसर प्राप्त रहे, शास्त्रों का अभ्यास रहे, साधर्मीजनों की संगति मिलती रहे,
1. जैनशतक छन्द 40 3. जैनशतक छन्द 30-31
2, जेनशतक छन्द 41 4. जैनशतक छन्द 44