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महाकवि भूधरदास :
जो धनलाभ लिलार लिख्यौं, लघु दीरघ सुक्रत के अनुसारे । सौ लहि है कछु फेर नहीं, मरने के तर सुर मिया ।। घाट न बाढ़ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच विचारै । कूप कियौं भर सागर में नर, गागर मान मिलै जल सारै ।'
यह तो एक दिन अवश्य ही होगा कि "खिलाड़ी" चला जायेगा और "शतरंज की बाजी" पड़ी रह जायेगी; क्योंकि खिलाड़ी को तो जाना ही होगा। वह चाहे या ना चाहे । वह चाहे कितना ही उपाय करे, किसी की सामर्थ्य नहीं कि इस संसार में उसे कोई आयु से अधिक एक क्षण के लिए भी रोक सके। इसी सत्य को कवि इन शब्दों में व्यक्त करता है
लोहमई कोट केई कोटन की ओट करौ; काँगुरेन तोप रोपि राखो पट भेरिकैं। इन्द्र चन्द्र चौकायत चौकस चौकी देहु चतुरंग चमू चहूँ ओर रहो घेरिकैं॥ तहाँ एक भौहिरा बनाय बीच बैठों पुनि, बोलो मति कोक जो बुलावै नाम टेरिक। ऐसे परपंच पाँति रचौ क्यों न भाँति-भांति,
कैसे हून छोरे जम देख्यों हम हेरिकै ॥ मृत्यु के आने पर सम्पूर्ण धन, धाम, काम, ऐश्वर्य आदि ज्यों के त्यों पड़े रह जाते हैं
तेज तुरंग सुरंग भलै रथ, मन मतंग उतंग खरे ही। दास खवास अवास अटा, धन ओर करोरन कोश भरे ही॥ ऐसे बढ़े तो कहा भयों है नर छोरि चले उठि अन्त छरे ही।
धाम खरै रहे काम परे रहे दाम गरे रहे ठाम घरे ही।।' 1. बैनशतक छन्द 75 2. वही छन्द 73 3. वही छन्द 33