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एक समालोचनात्मक अध्ययन
"सुनि दूत वचन वैरागे, निज मन प्रभु सोचन लागे । लोकोत्तम भोग नवीने ।
मैं इन्द्रासन सुख कीने,
तब तृपति भई तहाँ नाही, क्या होय मनुष पदमाही जो सागर के जल सेती, न बुझी तिसना तिस एती । "2 पश्चात् बारह भावनाएँ भाते हैं -
"भोग विमुख जिनराज इमि, सुधि कोनी शिवधान ।
भावैं खारह भावना, उदासीन हितदान ॥ *2
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओं के चिंतन से पार्श्वनाथ का वैराग्य दृढ़ता को प्राप्त होता है -
"ये दश दोय भावना भाय दिढ वैरागि भये जिनराज ।
देह भोग संसार स्वरूप, स्ख असार जानो जगभूप ।। जान्यो प्रभु संसार असार, अथिर अपावन देह निहार । इन्द्रिय सुख सुपने सम दीख, सो याही विधि है जगदीश ॥
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इस प्रकार शान्तरस कथानक में सर्वत्र दिखाई देता है। नायक पार्श्वनाथ की मूलवृत्ति वर्तमान जन्म में तथा पूर्व सभी जन्मों में ज्ञानवैराग्ययुक्त शान्त रसमयी ही रही है । पाठक पर भी शान्तरस का प्रभाव सर्वाधिक पड़ता है ।
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" पार्श्वपुराण" के उद्देश्य के अनुरूप आस्वाद्य शान्त रस ही है। अतः शान्तरस को पार्श्वपुराण का " अंगीरस" कहने में यत्किंचित् सन्देह नहीं रह जाता है। निष्कर्षतः पार्श्वपुराण का अंगीरस शान्तरस ही है।
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:: अन्य रस ::
काव्य के अंगरूप में पार्श्वपुराण में अन्य सभी रस विद्यमान है।
श्रृंगार रस नायक पार्श्वनाथ के नौ भव पूर्व मरूभूति के रूप में विद्यमान होने पर उसकी पत्नी विसुन्दरी के साथ उसका बड़ा भाई कमठ दुराचार कर लेता है । दुराचार करने के सम्बन्ध में श्रृंगार रस की उद्भावना हुई है -
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1. पार्श्वपुराण – कलकत्ता, अधिकार 7 पृष्ठ 63
2 एवं 3. पार्श्वपुराण कलकत्ता, अधिकार 7 पृष्ठ 64