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महाकवि भूधरदास:
हुआ है, उसकी सिद्धि के मार्ग में काव्यशास्त्र-अनुमोदित प्रकृति चित्रण उसे या तो साधक प्रतीत नहीं हुआ या कविमत उसमें प्रवृत्त ही नहीं हुआ है । सम्भवतः इसीलिए पार्श्वपुराण में उसका प्राय: अभाव है।।
जैन कवियों ने शान्त रस के उद्दीपन एवं पुष्टि के लिए प्रकृति की छटा को अपने साहित्य में बिखेरा है। उन्हें जीवन की नश्वरता, अशरणता एवं दुःखरूपता से कविता करने की प्रेरणा हुई । सुरम्य वातावरण निर्मित करने के साथ ही प्रकृति में शिक्षा देने की सामर्थ्य भी है । जैन कवियों ने प्रकृति से कई प्रकार की शिक्षा ली है। जैन कवियों ने प्रकृति चित्रण के बारे में श्री नेमीचन्द जैन का कथन निम्नानुसारहै
"इन्हें संध्या निवोढ़ा नायिका समान एकाएक वृद्धा कलूटी रजनी के रूप में परिवर्तित देखकर आत्मोत्थान की प्रेरणा प्राप्त हुई और इसी प्रेरणा को उन्होंने अपने काव्य में अंकित किया है। प्रकृति के विभिन्न रूपों में सन्दरी नर्तकी के दर्शन भी अनेक कवियों ने किये हैं; किन्तु वह नर्तकी दूसरे ही क्षण में कुरूपा
और वीभत्सा सी प्रतीत होने लगती है । रमणी के केश कलाप, सलज कपोल की लालिमा और साज सज्जा के विभिन्न रूपों में विरक्ति की भावना का दर्शन करना जैन कवियों की अपनी विशेषता है ।
अपभ्रंश भाषा के जैन कवियों ने अपने महाकाव्यों में आलम्बन और उद्दीपन विभाव के रूप में प्रकृति का चित्रण किया है । इस प्रकृति चिक्षण पर संस्कृत काव्यों के प्रकृति चित्रण का प्रभाव पड़ा है। अपभ्रंश भाषा के जैन कवियों ने नीति, धर्म और आत्मभावना की अभिव्यक्ति के लिये प्रकृति का आलम्बन ग्रहण किया है। इस सम्बन्ध में श्री नेमीचन्द जैन का कथन है
“जैन कवियों ने पौराणिक कथावस्तु को अपनाया, जिससे वे परम्परायुक्त वस्तु वर्णन में ही लगे रहे और प्रकृति के स्वस्थ चित्र न खींचे जा सके। शान्त रस की प्रधानता होने के कारण जैन चरित्र काव्यों में श्रृंगार की विभिन्न स्थितियों का मार्मिक चित्रण न हुआ, जिससे प्रकृति को उन्मुक्त रूप में चित्रित होने का कम ही अवसर मिला।
1. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग १- नेमीचन्द जैन पृष्ठ 181 2. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग १. नेमीचन्द जैन पृष्ठ 183