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महाकवि भूधरदास :
पूर्वजन्मों की कथायोजना द्वारा पाठक का कोतूहलवर्धन तो होता है, परन्तु इससे प्रबन्धात्मकता को ठेस पहुँचती है। प्रबन्ध की सफलता में यह प्रक्रिया दोषपूर्ण न होकर भी निर्दोष नहीं कही जा सकती है। कवि ने कथाप्रसंगों के पारस्परिक सम्बन्धों की ओर ध्यान दिया है; परन्तु वह परम्परागत रूढ़ियों के मोह से पीछा नहीं छुड़ा सका है । फलत: काव्य के कथानक में पूर्ण सन्तुलन एवं कसावट का आविर्भाव नहीं हो सका है।
“पार्श्वपुराण" का कथाप्रवाह सामान्यतया कहीं भंग नहीं होता है, परन्तु जहाँ कवि कथानक के बहाने सिद्धान्त की चर्चा करने लगता है तथा धर्मोपदेश देने लगता है, वहाँ कथाप्रवाह शिथिल अवश्य हो जाता है। सिद्धान्त-निरूपण
और उपदेश-क चिय ही तास प्रमाह जी से बोष है, परन्तु कुल मिलाकर कथाप्रवाह में नैरन्तर्य है, सतत् गति है, जिससे वह अपने लक्ष्य तक तीव्र गति से पहुंचने में पूर्णत: समर्थ है।
4. अन्विति एवं प्रभाव (मार्मिक स्थल) :- महाकाव्य में एक ओर घटनाओं की सुसम्बद्ध श्रृंखला होती है तो दूसरी ओर ऐसे प्रसंगों का समावेश होता है, जो पाठक के हृदय को स्पर्श कर सकें, उसे नाना भावों का रसात्मक अनुभव करा सकें उसकी रागात्मक वृत्ति को लीन करने की क्षमता रखें । “पार्श्वपुराण" का कथानक सुगठित एवं सुसम्बद्ध है । कवि द्वारा प्रस्तुत कथानक इतना सुगठित है कि किसी एक घटना के अभाव या परिवर्तन से सम्पूर्ण कथासूत्र टूट सकता है। एक घटना के बाद दूसरी घटना या एक प्रसंग के बाद दूसरा प्रसंग इस प्रकार बँधा हुआ है कि उसमें किसी प्रकार परिवर्तन नहीं हो सकता है। उदाहरणार्थ - प्रथम अधिकार के अन्त में कमठ द्वारा मरूभूति की हत्या का वर्णन है - “इहि विधि पापी कमठ ने, हत्या करी महान।" तथा दूसरे अधिकार के प्रारम्भ में -
"इस भांति तजे मरूभूति प्रान ।अब सुनो कथा आगे सुजान ।।
"तिस कथानक आरत ध्यान दोष, उपज्यों वनहस्ती “वज्रघोष"- मरूभूति से मरकर “क्नघोष" नामक हाथी के रूप में जन्म लेने का वर्णन है। इस 1. पार्श्वपुराण – भूधरदास, कलकत्ता, अधिकार 1 पृष्ठ 9 2 एवं 3. पार्श्वपुराण - भूधरदास, कलकत्ता, अधिकार 2 पृष्ठ 9