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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 169 प्रतियाँ उपलब्ध हैं । अप्रकाशित कृति में तीन भवों की कथा है, जबकि प्रकाशित कृति में केवल एक भव की कथा है। प्रकाशित कृति में कथावृत्त संक्षिप्त है, जबकि अप्रकाशित कृति में पर्याप्त विस्तृत है। 19 छन्दों में प्राप्त सम्पूर्ण रचना में मूल कथा 2 से 11 छन्द तक है। 12 वें एवं 13 वें छन्द में रुद्रदत्त द्विज को निशि भोजन से होने वाले पाप के कारण बार-बार निम्नकोटी की योनियों में जन्म लेना पड़ा - यह प्रतिपादित किया गया है। 14 वें छन्द में बताया गया है कि निशि भोजन के त्याग से परभव में सुख और इस भव में निरोगता प्राप्त होती है। 15 वें छन्द में अनिष्ट जीवों के भक्षण से होने वाले रोगों का वर्णन है । छन्द 16 से 19 तक बताया गया है कि इस भव का पीड़ा उत्पादक पाप परभव में भी दुःखकारक होता है। मूर्ख सुवचनों से प्रसन्न नहीं होता है। वीतराग गुरु के वचन ही सुवचन होते हैं । सुवचनों का भली-भाँति पालन करना चाहिए। इसकी मूल कथा इस प्रकार है जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरांजल नामक देश था। जिसके हस्तिनापुर नामक नगर में यशोभद्र नामक राजा राज्य करता था। इस राजा के रुद्रदत्त नाम का पुरोहित था। एक बार श्राद्ध पक्ष को प्रतिपदा को पुरोहित द्वारा अपने पितरों के श्राद्ध के उपलक्ष्य में ब्राह्मणों को भोजन कराया गया; परन्तु स्वयं के भोजन करते समय वह किसी कार्यवश राजा द्वारा बुलवा लिया गया। दैववश वह अर्द्धरात्रि तक भोजन न कर सका । पुरोहित की पत्नी जब शाम को भोजन बना रही थी तब बैंगन की शाक में एक मेंढक उछल कर गिर गया था और उसके वहाँ न होने पर उसे इस बात का कुछ पता नहीं चल पाया था। अर्द्धरात्रि को अन्धेरे में जब पुरोहित रुद्रदत्त ने भोजन किया तो वह मेंढक उसके दाँतों के नीचे आ गया। ठीक से न चबा पाने के कारण उसने उसे निकालकर बाहर रख दिया। प्रात: जब उसने उसे ( मेंढक ) को देखकर यह जान लिया कि वह मेंढक था, जो रात को मेरे मुँह में चला गया था, तब भी उसने रात्रि भोजन के प्रति कोई घृणा नहीं की और वह यथावत् रात्रि भोजन करता रहा, जिसके फलस्वरूप वह मरकर पापवश 10 बार नरक योनि में नारकी हुआ और अनन्त दुःखों का पात्र बना। इसप्रकार यह कृति रात्रिभोजनत्याग की प्रेरणा के साथ-साथ भोजन की शुद्धता पर भी बल देती है तथा श्रावक के सदाचार को भी अभिव्यक्त करती
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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