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महाकवि भूधरदास : इतने में संशय रहि जाय, सो सब केवल मांहि समाय। ___ यों निशल्य कीजै निजभाव, चरचा में हठ को नहि दाव ।। शब्दों या वचनों का पक्ष त्याज्य मानते हुए वे उसके दोष बताते हैं -
वचन पक्ष में गुण नहीं, नहिं जिनमत को न्याय । ऐंच बैंच सौं प्रीति की, डोर टूट मत जाई ।। ऐंच बैंच सौ बहुत गुन टूटत लगै न बार। ऐंच बैंच बिन एक गुन, नहिं टूटै निरधार ॥ वचन पक्ष परवत कियो, भयो कौन कल्यान। बसु भूपति हू पक्षकार, पहुँचौ नरक निदान ॥ वचन पक्ष करिवो बुरो जहाँ धर्म की आन।
निज अकाज पर को बुरो, जरो जरो यह बान।।' देश भाषा के ग्रंथों की प्रामाणिकता के लिये वे उसे संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के मूल ग्रंथों से मिलान करने की बात करते हैं -
प्राकृत बानीसों मिलै, सो संस्कृत दृढ़ जान। मिलै संस्कृत पाठसों, सो भाषा परमान ।। बाल बोध भाषा वचन, उपगारी अभिराम।
शाखा साखि जहँ चाहिये, तहाँ न आवै काम ॥' सत्य चर्चा भी भ्रमभाव के कारण असत्य हो गई है। इस कलिकाल में बहुत सी असत्य बातें चल रही हैं। वक्ता वचन का पक्ष ग्रहण कर लेते हैं
और श्रोता भी अपनी हठ नहीं छोड़ते हैं। जिनमत की चर्चा अगम्य और अपार है; इसलिए थोड़ा बहुत जानकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए। अधिक जानने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। जो लोग थोड़ा-सा जानकर तृप्त हो जाते हैं, वे जिनमत की रीति का पालन नहीं करते हैं। जिनमती खोजी होता है । खोज करने से विशेष गुण प्रकट होते हैं; जबकि वाद-विवाद करने में कोई गुण नहीं है। तभी तो सत्य है -
याहीते सब कोई, ग्वालबाल भी कहत हैं। खोजी जीवै जोई, वादी को जीवन विफल ॥"
1. चर्चा समाधान, भूघरदास पृष्ठ 3 2. चर्चा समाधान, भूधरदास पृष्ठ 3 3. चर्चा समाधान, भूधरदास पृष्ठ 3 4. वही पृष्ठ 3