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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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की चर्चा के बिना व्यर्थ मत करो। जिनमत की चर्चारूपी मधुर परम रस जिसने नहीं चखा, उस मनुष्यरूपी वृक्ष की डाल में सुन्दर फल नहीं लगेंगे। पढ़ना, पूछना, विचारना, पाठ करना तथा उपदेश देना आदि सभी में चर्चा गर्भित है । कहा भी है - जिसप्रकार मणि और विष से रहित सर्प का " सर्प" नाम निरर्थक है; उसीप्रकार सुवचन के अनुसार न चलने वाले का सुवचन सुनना या जानना निर्धक है । विषाकार शुग से "सिंह" हो के "सिंह" कहना सार्थक है, नाम से किसी को "सिंह" कहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता; उसीप्रकार हित करने वाले होने से सुवचन मात्र जिनेन्द्र के वचन ही हैं, अन्य के नहीं। जिस प्रकार चतुर को ही दाख अच्छी लगती है, किसी हीन कौवे को नहीं उसी प्रकार सुबुद्धि को ही सुवचन रुचिकर होते हैं, मूर्ख को नहीं। इस निकृष्ट पंचमकाल में जैन धर्म की दुर्लभता एवं वर्तमन स्थिति के बारे में भूधरदास का कथन
पंचम काल कराल अति, देखो सुधी विचार । जिनमत के मरमी पुरुष, बिरले भरत मँझार ॥ जैन धर्म को मर्म है महादुर्लभ जगमाहिं । समतिको कारण सही यामें संशय नाहिं ।। जैन धर्म को मर्म लहु वरतै
यह अपूर्व अचरज सुनौ
जैन धर्म लह मद बढ़े, अमृतपान विष परिणवैं,
मानकषाय । जल में लागी लाय ॥ वैद न मिलि है कोई। ताहि न औषधि होई ॥
जपकर तपकर दानकर, कर कर पर उपसार ।
जैन धर्म को पायकर, मान कषाय निवार ।। कालदोषतै भ्रम पर्यो, जिनमत चरचा माँहि । तिनको निर्णय जोग है जिनशासन की छाँह ॥' चर्चाओं के सत्य निर्णय करने के सम्बन्ध में वे कहते हैंनीति सिंहासन बैठो वीर मतिश्रुत दोऊ राख वजीर । जोग अजोगह करौ विचार, जैसे नीति नृपति व्योहार ॥
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जो चरचा चित में नहि चदै सो सब जैन सूत्रसों कढ़ें। अथवा जे श्रुतमरमी लोग, तिन्हें पूछ लीजै यह जोग ॥
1. चर्चा समाधान, भूधरदास पृष्ठ 4