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महाकवि भूधरदास :
कवि की दृष्टि में संसार की रीति बड़ी विचित्र एवं वैराग्योत्पादक है । यहाँ जन्म-मृत्यु का चक्र चला ही करता है। एक ही समय में कहीं तो जन्म की बधाइयाँ बजती है और कहीं पुत्र वियोग (मरण) से हाहाकार मचता है। किन्तु सब कुछ जानते हुए भी यह मूढ़ मनुष्य चेतता नहीं और करोड़ों की एक-एक घड़ी को व्यर्थ ही खोता जाता है । कवि चेतावनी देते हुए खेद व्यक्त करता है
काहू घर पुत्र जायो काहू के वियोग आयो, काहू राग - रंग काहू रोआ रोई करी है। जहाँ भान अगत उछाह गीत गान देखे, सांझ समै ताही थान हाय हाय परी है। ऐसी जगरीति को न देखि भयभीत होय . हा हा नर मूढ ! तेरी मति कौने हरी है। मानुष जनम पाय सोबत विहाय जाय.
खोवत करोरन की एक एक घरी है।' इस प्रकार कवि भूधरदास संसार से हटकर आत्मोन्मुखी वृत्ति वाले व्यक्ति थे। ___ भक्त एवं गुणानुरागी :- भूधरदास भक्त एवं गुणानुरागी हैं । वे अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उनके आराध्य अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी (शास्त्र) जिनधर्म आदि हैं; इसलिए वे उन सब के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्तुति करते हैं। ' भक्तिवश भूधरदास जैनधर्म की विशेष महिमा बतलाते हैं । भक्त कवि पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करता हुआ सभी पूज्य पदों को पूजकर अल्पबुद्धि एवं हीनशक्ति वाला होकर भी भक्ति के वश महाकाव्य “पार्श्वपुराण” की रचना करता है -
बन्दौ तीर्थकर चौबीस । बन्दी सिद्ध बसैं जगसीस ।।
बन्दौ आचारज उबझाय । बन्दी परम साधु के पाय ।। 1. जैनशतक पद्य 21 2. जैनशतक पद्य 1 से 15 3. जैनशतक पद्य 93 से 105 तक