________________
110
अन्तर उज्जवल
अन्तर उज्जवल करना रे भाई ॥ टेक ॥
कपट कृपाण तजै नहिं तबलों, करनी काज न सरना रे ॥
*******
बाहिर भेष क्रिया उर शुचि नाहीं हैं सब लोक- रंजना,
महाकवि भूधरदास :
|| अन्तर उज्जवल ॥
जप तप तीरथ यज्ञं व्रतादिक, आगम अर्थ उचरना रे । विषय, कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे ॥
|| अन्तर उज्जवल ॥
सौं, कीये पार उतरना रे । ऐसे
वेदन वरना रे ॥
|| अन्तर उज्जवल ॥
कामादिक मन सों मन मैला, 'भूधर' नte aer कर कैसे,
भजन किये क्या तिरना रे । केशर रंग उछरना रे ||
|| अन्तर उज्जवल ॥
भूधरदास
—