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महाकवि भूधरदास :
सूबेदारों की विद्रोह भावना आदि से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण विषाक्त हो गया था।
बीच-बीच में आये दुर्भिक्ष और महामारी के प्रकोप से सहस्त्रों व्यक्ति काल कवलित हो गये थे, किन्तु तत्कालीन शासकों को न तो देश की चिन्ता थी, न अकाल और महामारी की और न जनता के सुख दुःख की । उन्हें यदि चिन्ता थी तो यही कि उनके प्रभुत्व की रक्षा या वृद्धि कैसे हो ? उनकी ऐश्वर्य लोलुपता के पीछे कोई मंगलभावना नहीं थी। क्रूरता, धोखा, छलकपट, भोग-विलास आदि राजनीति की ऐसी लहरें थीं, जो इस युगप्रवाह में सर्वत्र दिखाई देती हैं। समग्र देश में एक उद्दाम लू चल रही थी, जिसका दाह भयंकर
म्हं व्याण्ड, या। सो होटे बड़े, गरीब मीर सब पीड़ित थे। देश की इस निर्बल राजनीतिक परिस्थितियों से लाभ उठाकर भारत में व्यापार करने के नाम पर पहले से ही आई हुई विदेशी कम्पनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी देशी राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाकर शासन की बागडोर अपने हाथ में लेती गई और ब्रिटिश राज्य का विस्तार करती गई। इस तरह देश अंग्रेजों द्वारा गुलामी की जंजीरों से जकड़ता हुआ स्वाधीनता के सुख से सर्वथा वंचित हो गया।
उपर्युक्त मुगलशासन की राजनीतिक अयोग्यता, असमर्थता, निर्बलता, भेदभाव एवं पक्षपातपूर्ण कूटनीति एवं विलासिता से प्रभावित कवि का हृदय सांसारिक जीवन और व्यवस्था के प्रति अनासक्त होता गया और उसका मन ईश्वरोन्मुख होते हुए धार्मिक बन गया। तत्कालीन जागीरदारों और नवाबों के आचरण से क्षुब्ध कवि राजदरबारी वातावरण से सर्वथा उदासीन रहकर धार्मिक एवं नैतिक आदर्शों से ओतप्रोत साहित्य की सर्जना करने लगा और इस प्रकार धार्मिक एवं नैतिक साहित्य द्वारा वह यथेष्ट साधु वृत्तिवाला (सन्त) बन गया। कवि के नैतिक एवं धार्मिक बनने में जैनधर्म एवं जैनदर्शन के प्रभाव के साथ-साथ हिन्दी सन्त साहित्य का भी यथेष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है; क्योंकि उसके साहित्य में भी सन्तों का प्रतिपाद्य मिलता है, जो आगे के अध्याय में विवेच्य
भूधरदास तत्कालीन राजनीति एवं राजदरबारों के वातावरण से अप्रभावित स्वतन्त्र रहने वाले उन सभी साहित्यकारों की श्रेणी में आते हैं। जिन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा उस रीतिकालीन परिवेश में भी समाज का उचित मार्गदर्शन किया तथा धार्मिक एवं नैतिक साहित्य की रचना करके स्व और पर को कल्याण के मार्ग पर लगाया ।