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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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आत्मवक्तव्य सन् 1985 में एमए, संस्कृत परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात् शोध कार्य करने की प्रबल इच्छा हुई, परन्तु विचार मूर्त रूप न ले सका । सन् 1987 में मैंने जैनदर्शन में आचार्य परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली। • उस समय राजस्थान विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अन्तर्गत जैन अनुशीलन केन्द्र के निदेशक डा. भागचन्द जैन "भास्कर थे। वे नागपुर विश्वविद्यालय से प्रतिनियुक्ति पर यहाँ आये थे। विशेष कृपा से शोधकार्य हेतु उनके निर्देशन की स्वीकृति प्राप्त होने पर मैंने “जैन दर्शन में कारण कार्य मीमांसा” विषय पर शोध की रूपरेखा विश्वविद्यालय को प्रस्तुत करते हुए पंजीयन की समस्त कार्यवाही पूर्ण कर शोध कार्य शुरू कर दिया। इस बीच डा. जैन अपने नगर नागपुर वापस चले गये और मुझे विश्वविद्यालय द्वारा शोध निर्देशक के परिवर्तन का आदेश प्राप्त हो गया। नियति को इस विषय पर शोधकार्य स्वीकार्य नहीं था । सन् 1989 में मैंने एमए. हिन्दी की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली तथा हिन्दी में ही शोधकार्य करने का निश्चय कर लिया।
चूंकि प्रारम्भ से ही मेरी रुचि जैन धर्म में थी, अत: हिन्दी में भी ऐसे कवि पर शोध करना चाहता था; जो जैन कवि होने के साथ-साथ साहित्यकार भी हो। जैन कवि बनारसीदास पर शोधकार्य हो चुका था। अत: उसी कड़ी में मुझे भूधरदास महत्वपूर्ण प्रतीत हुए। भूधरदास पर शोधकार्य करने हेतु मुझे प्रो. जमनालाल जैन, इन्दौर ने भी काफी प्रेरित किया। अत: भूधरदास पर शोध कार्य करने का मेरा दृढ़ निश्चय हो गया। इस शोधकार्य करने के अन्य अनेक कारण रहे - 1 विभिन्न भाषाओं में विभिन्न विषयों पर जैन विद्वानों द्वारा अनेक ग्रंथ
रचे गये; परन्तु अब तक उनका सही मूल्याकंन नहीं हो सका है। अत: जैन हिन्दी साहित्य के प्रमुख विद्वान भूधरदास पर शोधकार्य करके उनका उचित मूल्याकंन करने का विचार मन में आया। प्राय: जैन साहित्य को धार्मिक एवं साम्प्रदायिक मानकर उपेक्षित किया जाता रहा है और जैन कवि एवं साहित्यकारों पर शोधकार्य कम ही हुआ है । अत: जैन कवि भूधरदास पर शोध करने का विचार उदित हुआ।