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महाकवि भूषरदास : (छ) सन्तयुगीन परिस्थितियाँ तथा सन्तों का प्रदेय
सन्तों के भाव, विचार और विश्वास जिस वातावरण में पनपे और बढ़े, वह वातावरण बड़ा विचित्र था। भारतीय मध्ययुगीन समाज एक ओर तो अपने अन्दर ही अन्दर फैले हुए जातियों-उपजातियों के वर्गीकरण तथा विघटन के भयंकर विष से मृतप्राय: हो रहा था, दूसरी ओर मुसलमान शासकों के निरन्तर आक्रमणों और विविध अत्याचारों से त्रस्त ध्वस्त हो रहा था। धार्मिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि सभी दृष्टियों से घोर निराशा का वातावरण व्याप्त था।
___ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने तत्कालीन धार्मिक स्थिति के बारे में लिखा है कि —“धर्म के क्षेत्र में न केवल हिन्दू तथा मुसलमान दो वर्गों में बँटकर आपस में लड़भिड़ रहे थे; अपितु यती, जोगी, सन्यासी, साकत, जैन, शेख तथा काजी भी सर्वत्र अपनी हाँक रहे थे। सभी अपने अपने को सत्य मार्ग का पथिक मानकर एक दूसरे के प्रति घृणा तथा द्वेष के भाव रखते थे। इस प्रकार वर्गों के भीतर भी उपवर्गों की सृष्टि हो रही थी, जो प्रत्येक दूसरे को नितान्त भिन्न तथा विधर्मी तक समझने की चेष्टा करता था।"
इसी प्रकार तत्कालीन भारत की राजनैतिक दुर्दशा पर विचार करते हुए डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि “इस समय राजनीति कटी हुई पतंग की भाँति पतनोन्मुख हो रही थी। जो इसकी घिसटती हुई डोर पकड़ लेता, वही उसे भाग्याकाश की ऊँचाई तक ले जाता । राजनीति में कोई पवित्रता नहीं रही। कूटनीति, हिंसा, छल, त्रिशूल की भाँति फैंके जाते थे और देश के वक्षस्थल में चुभकर उसे नहला देते थे। श्मशान में घूमते हुए प्रेतों की भाँति दिल्ली के शासक शवों पर बैठकर आनन्द से खिलखिला उठते थे। जब शासकों की सेवा में रहने वाले हिजड़े और गुलाम भी सिंहासन पर अधिकार कर प्रजा के भाग्य का निर्णय करते थे तो उनके प्रति जनता के हृदय में कितनी श्रद्धा और स्वामिभक्ति हो सकती थी ? इस भाँति शासक वर्ग जनता की सहानमति खो चुका था। जनता भी “कोइ नृप होउ” की मनोवृत्ति से राजनीति के प्रति उदासीन थी ।" 2 1, उत्तरी भारत की सन्त परम्परा- डॉ. परशुराम चतुर्वेदी पृष्ठ 182-183 2. हिन्दी साहित्य- डॉ. रामकुमार वर्मा द्वितीय खण्ड पृष्ठ 196