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एक समालोचनात्मक अध्ययन बनी रहती है जो भयंकर बरसात में भी चुए नहीं। ऐसे घर की प्राप्ति होने पर उन्हें बहुत प्रसन्नता होती है और वे उस घर से बाहर नहीं निकलना चाहते, आराम से उसी में रहना चाहते हैं।
लगता है कविवर भूधरदासजी को भी ऐसे ही घर में रहना पड़ा होगा, जो वर्षा आने पर चूता होगा। यह भी हो सकता है कि उन्होंने श्रावणमास में ही इस पद की रचना की हो; जिसमें उन्होंने इस पावस ऋतु के श्रावण मास की सर्वप्रकार ऋतु सम्बन्धी अनुकूलता के अनुभव के साथ-साथ चूने वाले घर को प्रतिकूलता का भी अनुभव किया हो। इस कारण सहज भाव से सम्यक्त्वरूप सावन की महिमा बखान करते करते वे आत्मानुभवरूपी निरचू घर से बाहर ही नहीं निकलने की बात करने लगे हैं।
उक्त पद में श्रावणी वर्षा ऋतु का सांगोपांग वर्णन है। ग्रीष्म की गर्मी का समापन, पावस का सहज सुहावनापन, बिजली का चमकना, घने काले बादलों का छा जाना, पपीहा का बोलना, सुहागिनों का मन मोहित होना, बादलों का गरजना, मोरों का मुदित होना, नाचना, अंकुरों का फूटना, सर्वत्र हर्ष का छा जाना, धूल का कहीं भी दिखाई न देना और सर्वत्र जल ही जल दिखाई देना आदि वर्षा ऋतु की सभी विशेषताओं का सुन्दरतम वर्णन इस पद में है और इन सभी को सम्यक्त्व प्राप्ति से होने वाले आनन्द से जोड़ा गया
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इस पद में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, पावस की प्राकृतिक मनोहारी छटा को सम्यग्दर्शन रूप आत्मीय पाव के रूप में प्रस्तुत किया गया है; जो काव्यकला के भावपक्ष और कलापक्ष का सुन्दरतम निदर्शन है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि महाकवि भूधरदासजी का सम्पूर्ण पद्य साहित्य भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से पूर्णतः समृद्ध साहित्य है।
डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन शास्त्री ने इस शोध-प्रबंध में महाकवि भूधरदास के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को विषय बनाकर एक महती आवश्यकता की पूर्ति की है। जैनसाहित्य की उपेक्षा अब तक यह कहकर की जाती रही है कि वह साम्प्रदायिक साहित्य है, धार्मिक साहित्य है। अब कुछ समय से शोधार्थियों का ध्यान इस ओर गया है। इस कारण थोड़ा-बहुत कार्य इस दिशा में हुआ