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________________ मदनजुद्ध काव्य द्वार पर आनन्द से आ गया है । तू भी चित्त में प्रफुल्लित होकर शीघ्र ही आरती उतार । इस प्रकार पति-पत्नी का सम्बन्ध है । यदि अन्तर्दृष्टि से देखे तो हम रागी गृहस्थी जीवों का मन ही मदन है । उसमें उत्पन्न अभिलाषा ही रति है । जब मन बाह्य पदार्थोको जानने के लिए जाता है उस समय रति चुपचाप पड़ी रहती है । बाहर में मन फंसकर नहीं रह जाता तब रति अपने पति को उन विषयों के संग्रह में प्रोत्साहित करती है । यही उसका आरती उतारना है । पति को इस कार्य के लिए प्रसन्न करना तथा आलसी न होने देना है । कवि ने प्रत्येक जीवन के अनुभव को संक्षेप में प्रस्तुत किया है । मुहू रहिय मोडि मानिनि युच्छा तब भयणु कवण कम्जेण को सुरवीस अटलो कहि संदरि मझु सिंह भुवेण ।।६।। अर्थ-मदनने अपनी पत्नी (रति) से पूछा कि-हे मानिनी । तू किस कार्य से मुख मोड़ रही है । (मन कर रही है) । हे सुन्दरी । कहो, सिंह भुजा वाले मुझसे अधिक इतना शूरवीर कौन है? व्याख्या- रतिका अपने माननीय पतिके आदरमें उत्साह न दिखलाना ही मदनके प्रति रूस जानेका सूचक है । जीव की प्रवृत्तियाँ ही उसके मनोगत भावोंको प्रकट कर देती है । उसके आलसको देखकर बिना कहे ही मदन ने जान लिया कि वह रूठ गई है, तो वह गर्व में भरकर उसे मनाने की चेष्टा करता हुआ कहता है- "मैं विजयके लिए गया था। वहाँ सुमति और संयमश्री आदि अनेक नारियाँ थीं किन्तु मैं उनके मोहजालमें नहीं फँसा । मेरी सिंह जैसी भुजाओं का पराक्रम विशिष्ट है, वे सभीको पराजित करके छोड़ती हैं । वह कायर विवेक मुझे देखते ही भाग खड़ा हुआ। उसने मुझे अपनी पीठ दिखला दी । ऐसे कायर के पीछे मैं नहीं दौड़ा । मैंने महापुरुषों के वाक्योंको प्रमाणित किया कि शूरों को शूर की छाती पर ही प्रहार करना चाहिए, भागते हुए की पीठ पर प्रहार करना अन्याय मार्ग है इसीलिए मैं अपनी विजय मानकर लौट आया हूँ | इसमें तुम्हारा कौन सा मान भंग हुआ है । मैंने तो तुम्हारी प्रतिष्ठाको ही बढ़ाया है। मुझे तुमसे अद्वितीय प्रेम है इसलिए विजय प्राप्त करके शीघ्र ही तुम्हारे पास आ गया हूँ । ऐसा कौन सा प्रयोजन है, जिसे मैंने पूरा नहीं किया। संभव है तुझे मेरे विरह ने दुखी किया हो किन्तु अब निश्चिन्त रहो, अब मैं तुम्हारे पास ही रहूँगा । मदन जैसा वीर राजा भी स्त्री के रूस जाने पर भीरु बन गया और इस प्रकार के प्रश्न पूछने लगा।"
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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