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________________ ४४ मदनजुद्ध काव्य रति-मदन संवाद के न जित्तिउ कवणु तई देसु । को दृषु पर' पर अघणु रूप सूपति डिगायऊ । किसु छत्तु विहंडियउ करिवि बंदि कहु कासु ल्यायउ । किसु मलियन परतापु तई कहं कई फेरी आण । रति अंपइ-हो मयण सुणि कहु पोरुषु अप्पाणु ।। ६१।। ___ अर्थ–रति कहती है कि हे प्राणप्रिय, मदन आप मुझे बताइये कि ऐसा भी कोई देश है, जिसे आपने नहीं जीता? (यदि जीता है तो) यह कौन सा देश है । कौन सा पट्टन (समुद्र तट का नगर) है, कौन सा सबल राजा है, जिसको डिगाया है । किसका छत्र विघटित किया है । कहो, किसको बंदी बनाकर लाए हो । किसके प्रतापको मलिन किया है । तुमने कहाँ-कहाँ किस-किस पर आज्ञा चलाई है । अपना पुरुषार्थ तो मुझे बताओ, कितना तुममें पौरुष बल है । व्याख्या—संसार में नर-नारियों का प्रेम एक अकृत्रिम प्रेम है । जब उसमें कृत्रिमता की गन्ध आने लगती है तभी आपसी सम्बन्धों में कटुत्ता आ जाती हैं । यहाँ रति और मदन के आपसी सम्बन्धों में कटता आ गई है । इसलिए इति अपने पति पर क्रोध प्रकट कर रही है । उससे प्रेम पूर्वक नहीं बोलती है । अपनी दृष्टि नीची कर लेती है । लेकिन मदन के अपनी वीरता के सम्बन्ध में कहे गए. गर्व भरे वचनों से आहत होकर वह पूछती है कि बताइये आपने कौन से ऐसे पुरुषार्थ के कार्य किए हैं, जिनसे आपकी विजयका पता लग सके । रत्तिने मदनसे आठ प्रकार की विजयोंके विषय में पूछा है, जिनका आध्यात्मिक दृष्टि से निम्र अर्थ है--प्रथम विजय से तात्पर्य शंकर आदि देव तथा वैराग्य भावों से हैं। दूसरी विजय में कौन-कौन देश से मतलब स्वर्ग, मनुष्य लोक तथा शुभमान रूप देश से है । तृतीय विजय में श्रावक व मुनिरूप पट्टन देशों से है । चतुर्थ विजय में बलराजा से अर्थ संयमी साधुओं को डिगाने से है । पंचम विजय में छत्र शब्द से अभिप्राय सम्यक्त्व को बिगाड़ने से है । विजय में बन्दी बनाने का तात्पर्य कुगुरु, कुशास्त्र सेक्कों से है । सप्तम विजय में प्रताप मलिन करने का प्रयोजन अन्तरंग की मलिन भावनाओं से है । अष्टम विजय का अर्थ बहिरात्मा तथा बाह्य परिग्रहों को एकत्व मानने वाले भावों से है ।
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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