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________________ मदनजुद्ध काव्य दोहा छन्द : माइ पिता पांग लग्गिकार तब मनमथु धरि जाई। रहसिउ अंगि न माइया जीते राणे राइ ।।५८।। अर्थ-माता पिता के चरणों का स्पर्श कर, तब मन्मथ (मदन) घर गया और रहसिउ (हर्ष) उसके अंगों में नहीं समाया । और कहा कि "मैंने तो रण में सभी राजा जीत लिए (ऐसा गर्व किया) ।" व्याख्या-यहाँ कविने माता-पिता के प्रति पुत्र के कर्त्तव्य को प्रकट किया है । यह आर्योंकी प्राचीन संस्कृति रही है कि जन्न पत्र परदेश से आता, जाता है अथवा किसी कार्य में सफलता प्राप्त करता है, उस समय माता-पिता के चरणों में नमस्कार करता है । तत्पश्चात् वह अन्य कार्यों को करता है । मदन ने भी अपने माता-पिता के चरणों में नमस्कार किया। तदनन्तर वह अपनी पत्नी रति के पास गया । उस समय वह इतना प्रसन्न था कि उसका आनन्द और हर्ष, हास्य के रूप में बाहर फैल रहा था । यह हर्ष राजा गणों को जीतने के कारण प्रगट हुआ था । मातापिता ने सिर चूमकर उसे आशीर्वाद दिया । __ यह एक रूपक काव्य है । कवि ने मोह को पिता बतलाया है और कहा है कि सब परिवार इसी का है । इसकी तीन संतानें हैं-१.मदन, २. राग एवं ३, द्वेष । पर को आप मानना मोह कहलाता है । पर में इष्ट कल्पना को राग कहते हैं और पर में अनिष्ट कल्पना द्वेष कहलाती हैं । माया इनकी माता है । लोक व्यवहार जैसा ही अध्यात्म व्यवहार भी है। गाथा छन्द : ए जित्ति चित्ति खिल्लिउ आयउ आनंदि घरह जब द्वारे । उह उह धंदवयणी आरराज वेगि उसारि ।।५।। अर्थ—(और अपनी पत्नी से कहा) ओ रति चित्तमें प्रफुल्लित हो देख, घर के द्वार पर तेरा पति आनन्द से आ गया है । हे चन्द्रवदनी, उठ, उठ ! वेग से आरती उतार । व्याख्या-यह भी आर्य-संस्कृति और कवि परम्परा है कि पतिव्रता नारियाँ अपने वीर पतिको तिलक लगाकर तथा माला पहनाकर युद्ध क्षेत्रके लिए बिदा करती थीं तथा विजय प्राप्त कर वापिस लौटने पर आरती उतारती एवं माला पहिनाती थीं । मदनकी पत्नी रति घरके अन्दर चुप बैठी थी । उसे पता नहीं था कि पतिदेव आ गए हैं । कोई सखी बाहर से पुकार कर कहती हैं—हे चन्द्रमुखी रति, तेरा आराध्य पति, घर के
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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