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मदनजुद्ध काव्य सके) वे भी गौरीके साथ रमने लगे । हित भूल गए. प्राण (सुध बुध) भूल गए 1 उस मदन ने ब्रह्माजी को भी तपसे टालकर इन भोगों के मायाजालमें डालकर, मोहिनी (अप्सराओं) के रूप को दिखाकर, रागके फंदेमें पटक दिया। हरि (कृष्ण) को भी मदनने इसप्रकार वशमें किया कि वे भी सोलह हजार वर्षतक रात दिन गूजरी (गोपियों) के रसमें रत रहें। ऐसे दुस्सह मदनराजाके साथ आया रे आया कहकर सभी देवताभी अपना हा सामान) नेवार युद्धों बने गए !
व्याख्या–यहाँ पर मदनका वर्णन छत्र चमरधारी चक्रवर्ती के सदृश किया गया है। उसने संसारमें अपना ऐसा सार्वभौम राज्य बनाया है कि आजतक उसके विरुद्ध को अंगली नही उठा सका, जिसने भी अंगुली उठाई उन सबको उसने भ्रष्ट कर दिया । साधु-सन्यासी भी अपनी तपस्यामे स्थिर नहीं रह सके । वीर सभट अपनी वीरता को त्यागकर रागी बन गए, जो देव तपस्वी बनें उन्हे भी मदन ने पतित बना दिया । सारांश यह है कि सभी पंचेन्द्रिय जीव भोगों के अधीन होकर अपने कर्तव्य को भूल गए । संसारमें नारियोंका निर्माण इसीलिए किया गया है कि वे स्वयं राग में लीन रहें और अन्य सभी जीवों को लीन किए रहें । मदन राजा इन्हीं के बल पर चक्रवती बना हुआ है ।।
तात्पर्य यह है कि सभी जीवों को आत्मा में मैथुन संज्ञा उत्पन्न हो रही है, जिससे वे कार्य-अकार्य को भूलकर जन्म-मरण के दुःख उठा
जमदगनि जू विश्वामित्तु टालिउ तिहह चित्तु छोडि सपु गेहु किंतु अपु खोइयं । इंद विषय अधिक व्यापु अहल्या टालिउ आपु गोतमि दियो सरापु भग उइयं । जिनि लंकपतिहि डिगाइ आणिय सीय दुराइ घालिय रावणु थाइ कहइ जिणो । आयौ आयौ रे मदनराइ दुसर् लग्गउ घाइ चलिय सुर पलाइ गहिवि तिणो ।। ४७।।
अर्थ-जामदग्नि तथा विश्वामित्र ऋषिके चित्त को भी (मदन ने) चलायमान कर दिया । तपस्या को छोड़कर उन महान् ऋषियों ने गृहस्थावस्था को धारण किया और अपने को भोगों में खो दिया । इसी प्रकार जब इंद्रके मनमें भी अधिक विषयों की अभिलाषा व्याप्त हुई तब वह