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'पदमा नुन
अर्थ—जो नारियाँ कामी होती हैं, वे पुरुष के पास द्रव्यको देखकर चिन में अत्यधिक प्रसत्र होती हैं, पुरुष भी उनपर आसक्त होकर अपने शील और सत्यको गँवा बैठते हैं । अपने जन्म-मरण धारण करते हुए अन्तकाल तक अनेक दुःखों को सहते हैं । वे अपने (वेश्या रूपी तरुणी नारियाँ) मन मे अन्य पुरुष का विचार करती है, अन्य पुरुषसे वार्ता करती हैं तथा संसार में अन्य पुरुष का विश्वास करती हैं । वे नारियाँ वसन्त के आगमन पर (प्रसन्न होकर) गीत गाती और वीणा बजाती है ।
व्याख्या--इस छंदमें कविने नारियोंके मायाघारी गुण का वर्णन किया है । प्राय: वेश्या नारियों अपने हाव-भाव दिखाकर पुरुषोंको अपने जाल में फंसा लेती है । वे रागकी वंशी धनी पुरुषोंके मन में उत्पन्न कर देती हैं । बड़े-बड़े शील और सत्यके धनी भी उनके कटाक्ष-वाणों से घायल हो जाते हैं और उनके दास बनकर निर्धन बन जाते हैं। उस शील को गँवाने का यह परिणाम होता है कि वे अनन्तकालतक कुयोनियोंमे जन्ममरण धारण करके दुख सहते-रहते हैं ।
उन नारियोमें पायाचारकी प्रवृत्ति स्वभावतः होती है । वे मनमे कुछ, वचनमें कुछ तथा ऊपर से शरीरकी और ही चेष्टाएँ प्रदर्शित करती हैं। इनकी इस माया में बड़े-बड़े साधुजन भी मोहित हो जाते है । जैसे कि माघनंदी मुनिकी कथा मिलती है । वे कुम्हारकी षोडशी कन्या पर आसक्त होकर साधु पद छोड़कर उसके साथ गृहस्थ बन गए थे । गोम्भटसार जीवकांड में ऐसी गाथा आई है, जिसमें स्त्रीका स्वरूप निर्दिष्ट है
"छादयदि संग दोसे परंपिदोसेणछादयदि । जीवकापडः यशस्तिलकचप्पू, आत्मानुशासन, भगवती आराधना, पद्मनंदीपंच विशंतिका, सुभाषितरत्नसंदाह आदि अनेक अन्थोंमें इसका वर्णन
विस्तारपूर्वक किया गया है । वस्तु' छन्द :
तरुणि पाइकु दंभु मंतीसु मिथ्यात गय गुडिउ विसन सत्त हय तेउ सज्जिउ । सण्णाहु कुसीलु तनि पापु कुसत्यु नीसाणु वज्जिड़ । छलु परिउ अर्धमादु सिरि चंवर कसाय बुलंतु । इम रतिपति संबूहिकरि चखिउ गहिरू गज्जंतु ।।४४।।
अर्थ-तरुणी नारियाँ उस मोह राजकी पैदल सेना थीं तथा दम्भ १.ख. इस छंद का नाम 'रई' दिया है ।