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मदनजुद्ध काव्य
कराया । तब उन्होंने दीक्षा धारण की और १००० वर्ष तक मुनि-अवस्थामें तपश्चरण किया । तब केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई । उन्होंने जो उपदेश दिया वही जिनवाणी माता हम सबकी रक्षा करें, सुख देवें ।
प्रन्थ-विषय वस्तु छन्द :
रिसह-जिणवरु पड़म-तित्ययरु । जिणथम्मह उद्धरणु जुवल' धम्मु समा णिवारणु । नाभिराय कुल-कमलु सरवण्णु संसार-तारणु । हो र विसा साप्तु घलांग सिरू पारि । सो किम रतिपति जित्तियउ से गुण कहउँ विचारि ।।३।।
अर्थ--श्री ऋषभदेव जिनवर प्रथम तीर्थंकर हो गए हैं । वे जिनधर्मके उद्धारकर्ता थे । जुगलियाधर्मका निवारण करने वाले थे । पिता नाभिरायके कुलमें उत्पन्न कमल के समान थे, सर्वज्ञ थे तथा संसारसे तारने वाले थे, जो सरेन्द्रों द्वारा वंदित थे । ऐसे उन ऋषभदेवके चरणों में सिर धरता हूँ-नमस्कार करता है । उन्होंने रतिपतिको कैसे जीता? मैं उनके गणोंको विचारकर कहता हूँ । रतिपति अर्थात् कामदेवको जीतनेको कथा कहता
व्याख्या-इस अवसर्पिणी काल के सुषमा-दुषमा काल नाम के तीसरे काल के अन्त मे ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष महीना शेष थे, तब ही ऋषभदेव ने जन्म लिया था । अंतिम कुलकर श्री नाभिराय पिता तथा मरुदेवी माता के कलरूप सरोवर में कमल के समान उत्पन्न हुए । उस समय भोग-भूमि का अन्तिम समय था । उन्हीं के जन्म से युगलिया धर्म का निवारण हुआ । ऋषभदेव की आय् ८४ लाख पूर्व की थी । ८३ लाख पूर्व की आयु बीत जाने पर उन्होंने दीक्षा धारण की और मोक्ष प्राप्त किया । कवि के मन में यह प्रश्न उठा कि उन्होंने दीक्षा-समय में अपने शत्रु कामदेव को बिना क्रोध के कैसे जीत लिया? इसी के समाधान की वह प्रतिज्ञा करता है ।
प्रन्थ के अध्ययन का फल सुणाहु भवियण एहु परमत्यु ।
सजि चिंता परकथा इक्कध्यानि होइ कण्णु दिज्जा । १.क. जुअल.