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मदनजुद्ध काव्य
महाकवि बूचराज कृत मदनजुद्ध काव्य
मंगलाचरण ताटक--(शार्दूलविक्रीडित) छन्द :
हे. साट्न वाण दिः पविज शिवाण-चित्तंतरे, उव्यपणो मरुदेवि-कुक्खि-रयणो इक्खाक-कुलपंडणो । भोत्तुं भोय-सुरज्ज-देसु बिमलो पावीअ विज्जापुणो, संपत्तो णिरवाणि देह रिसहो काओ स मे मंगल ।।१।। अर्थ-ताटंक (क्रर्णाभूषण)-शार्दूलविक्रीडित छन्द
वे ऋषभदेव मेरा मंगल करें, जो सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पत्र हुए । पुन: वहाँसे चयकर आत्माके भीतर तीन ज्ञानके पूर्ण धारी होकर माता मरुदेवीकी कुक्षि (उदर) के रत्न रूपमें उत्पन्न हुए, जो इक्ष्वाकु कुल के मंडन-भूषण थे, वे भोगों को भोगकर तथा सुराज्यका उपदेश देकर पुन: वीतराग भगवान् वैराग्यको प्राप्त हुए । तत्पश्चात् निर्वाणको प्राप्त हुए ।
जिनवाणी को नमस्कार गाथा छन्द : जिणवरह वागवाणी पणवउँ सुह-पत्ति देहि जग-जगणी । वण्णवं सुमयणजुद्धं किम जित्तिउ देव-रिसहेसु ।।२।।
अर्थ-भगवान् ऋषभदेव को दिव्यध्वनि (वचनरूप वाणी) को मैं प्रणाम करता हूँ । वह वाणी जगत्की माता है । अर्थात् माताको तरह सब जीवोंकी अहिंसा-धर्मसे रक्षा करती है । ऐसी है जिनवाणी माता ! सुख और भक्ति (आपके गुणोंमें अनुराग) दीजिए । श्री ऋषभदेव भगवान् ने मदनको कैसे जीता? उसी श्रेष्ठ पदन-युद्धका मैं वर्णन करता हूँ।
व्याख्या-ऋषभदेवने केवलज्ञान प्राप्त करके अनक्षर बीजोंमें उपदेश दिया । वहीं वाणी १८ महाभाषा, ७०० लघुभाषा रूप सभी जीवों को यथायोग्य प्राप्त हुई । एक लाख पूर्व कुमार कालमे व्यतीत हुए। तत्पश्चात् पिता नाभिरायसे राज्य-पद प्राप्त किया । उस समय असि, मसि आदि षटकर्मोका उपदेश दिया और देशको सुराज्य बनाया । सुराज्य उसीको कहते हैं, जहाँ इति-भीति न हो और प्रजा शान्ति पूर्वक जीवन-यापन करें । फिर भागोंमें लिप्त देखकर इन्द्रने नीलांजनाके वियोगसे वैराग्य उत्पत्र