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प्रस्तावना
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वसन्त की मादकता सम्पूर्ण पृथिवी को अपने वशंगन कर लेती है। सभी कामदेव के वशीभूत हो जाते हैं, चाहे वे शिव और कृष्ण हों या ऋषि मुनि । इसीको कवि ने श्रृंगार रस के माध्यम से चित्रित किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पद्य सं० 36 से 48 तक शृंगार रस का सुन्दर परिपाक हुआ हैं ।
इसमें वसन्त ऋतु का आगमन आलम्बन विभाव है। नारियों का साज-श्रृंगार उद्दीपन विभाव और आश्रय पाठक या श्रोतागण हैं । विविध प्रकार की चेष्टाएँ अनुभाव हैं और हर्ष, चापल्य आदि संचारी भावों से पुत्र होकर संयोग श्रृंगार की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई हैं यथा
जिन्हराग कटि बद्धिय पटंबर जिरह और उरि कंचुय कसे । हाकंति हसति कूकति कुरलति मुछति भइ लहरी विसे ।
गावंति गीय वजति त्रीणा तरुणि पाइक आइय
हरि लियउ मदनि कसि सोलह सहास वसि । रहिउ गूजरि रस्त्रि स्यणि दिणा' ।।
जिन मिलिङ संकर मानु छोड़िउ अंतरध्यानु
गौरी संग हित प्राणु इव नयिं ।।
यहाँ दूसरे उदाहरण में कृष्ण आश्रय है, गोपियों आलम्बन हैं, उनके हावभाव, उद्दीपन और अनुभाव, संचारी भाव का शब्दों द्वारा उल्लेख न होने पर भी यह प्रसंग शृंगार रस की प्रतीति कराने में समर्थ हैं। इसी प्रकार शिव का गौरी के साथ एक प्राण हो जाना भी शृंगार रस की अनुभूति कराने में समर्थ हैं ।
हास्य रस
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हास्य रस के केवल एक-दो प्रसंग ही प्रस्तुत कृति में उपलब्ध हैं । जब मदन युद्ध में समस्त राजाओं को पराजित करके अपने नगर में लौटता है उस समय समस्त प्रजा उसकी विजय की खुशी में उल्लसित हो उठती हैं । उसकी माता पुत्र को घर लौटा हुआ देखकर हर्ष-विभोर हो जाती हैं और उसका वर्धापण करती हैं । मदन भी गर्व से भरकर ऐसी हँसी हँसता है कि वह उसके अंग में नहीं समाती । यथा“माया करिउ वधावणs मोहह रंजित चित्तु ।
सव्वहं इच्छा पुत्रिया घरि आयउ जिणि पुत्त" (57) माई पिता पगि लग्गि करि तब मनमथु घरि जाई ।
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2. वही, 46
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मयण० 41
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