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मदनजुद्ध काव्य विदित होता है कि कवि की प्रतिभा बहुआयामी थी । यहाँ उक्त रचना के काव्य-गुणों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा हैं-.रस-योजना
कविता अनुभूति का मूर्तरूप है, जिसमें कवि के संवेदनशील भाव-संवेगां का स्फूर्त प्रवाह प्रवर्तित होना हैं । अनुभूति का उचिन भावन कर कति अपने अन्नम्नान में वर्तमान अप्रतिम-सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण करता है और यह प्रत्यक्षीकृत सौन्दर्य ही कला है । काव्य के निर्माण में अनभूति और अभिव्यक्ति का मणिकांचन योग रहना हैं, जिसे दूसरे शब्दों में भाव-पक्ष कहते हैं । भाव-पक्ष का तात्पर्य आत्मा से और कला-पक्ष का कलेवर से है ।।
भारतीय काव्य-शास्त्र में रस की आनन्दानुभूति ब्रह्मानन्द सहोदर की अनुभूति के समान अप्रतिम है । इस साहदय के हृदय का प्राणवन्त संवाद है । रस के प्राचुर्य से काव्य के अर्थ में उसी प्रकार नवीनता आ जाती हैं, जैसे मधुमास के आगमन से वृक्षों में नई शोभा । आचार्य कृन्तक ने कहा है कि कवि की वाणी-मात्र कथा के आश्रित नहीं जीती, उसे तो रसोद्गार गर्भ निर्भर होना चाहिए । जो कति मार्मिक स्थलों की सृष्टि में जितनी कुशलता का परिचय देगा, उसकी रसव्यंजना उतनी ही नीत्र होगी।
मयणाजुद्ध काव्य-ग्रन्छ । से की अनसन सु.दर पोजना हुई है । इसमें शान्त रस अपने अंगीरूप में विद्यमान है । प्रारम्भ से अन्न तक उसी की परिव्याप्ति है । अन्य रस उसीके परिपाक से परिपुष्ट हुए हैं और उनका पर्यवसान भी निर्वेद में ही हो गया है। शान्त रस निर्मल-निझरणी की तरह प्रवाहित होता हुआ अन्य नदी रूप रसों को भी अपने में लीन करता हुआ निरन्तर प्रवहमान है । श्रृंगार रस
___ध्वन्यालोक के रचयिता आनन्दवर्धन ने श्रृंगार रस की सर्वमान्यता घोषित करते हुए बतलाया है कि सबसे आह्लादक और मधुर रस शृंगार ही है । इसी से काव्य में माधुर्य की प्रतिष्ठा होती है । शृंगार रस से नायक और नायिका के बीच द्वयता मिट जाती है और दोनों में समान समाकर्षण होता है । दोनों के बीच अनुभूति की तीव्रता और तन्मयता की व्यापकता बढ़ जाती हैं।
मयणजुद्धकव्व में श्रृंगार रस की अभिव्यंजना कवि ने वसन्त ऋतु के आगमन के प्रसंग में की है । मदन ने संसार को किस प्रकार अपने वशीभून कर लिया है, इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए शृंगार रस का मनमोहक चित्रण किया गया है।
1. मन्यालोक, 4/4-5 2. वक्रोक्तिजीवित, उन्मेष 4