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मदनजुद्ध काव्य बढ़ती जाती हैं । पाँचवीं प्रतिमा में सचित्त के त्याग से जीव रक्षा होती है। इस बहिरंग शुद्धि से भी आत्मशुद्धि होतीहै । छठवी प्रतिमा रात्रि भोजन त्याग है । सातवी प्रतिमा में व्रती घर में रहता हुआ भी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है । इस प्रतिमा के पालन से आत्मपरिणति होती है। रागपरिणति समाप्त हो जाती है । आठबी प्रतिमा में आरम्म का त्याग करता है । हिंसा से बचने के लिए वह अठवीं प्रतिमा को धारण करता हैं । नवमी परिगह रइ मिल्हीज्जइ सावदि वचनु न दसमी लीजा एकादसमी पडिमाइह परि रिसि जिम ले भिक्षा पर घर फिरि ।। १५०।।
अर्थ नवमी प्रतिमा में परिग्रह में रति छोड़ो । दसवीं आहारादि की अनुमति रूप सावध वचनों का त्याग करो । ग्यारहवी प्रतिमा यह है कि जैसे ऋषि घर-घर भ्रमण कर आहार ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार आहार ग्रहण करना । ।
व्याख्या----आठवीं प्रतिमा के बाद वह आगे बढ़ता हैं और पास के परिग्रह का भी त्याग कर देता है । अल्प आवश्यक परिग्रह रखता है । उसमें भी ममत्व नहीं होने से परिग्रहत्यागप्रतिमाधारी होता है । दशमी प्रतिमा में इस लोक सम्बन्धी कार्यों में अपनी अनुमति नहीं देता है जिसने बुलाया उसी के यहाँ भोजन कर लेता है । भोजन तथा परिग्रह का भार नहीं रहने के कारण वह सदा प्रसन्नचित्त रहता है । अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमा में साधु कि तरह वनवासी होता है, गृह त्यागी होता है । वह भी दो प्रकार का है—एक क्षुल्लक है दूसरा ऐलक । क्षुल्लक लंगोटी और चादर धारण करता है और ऐलक मात्र लंगोटी । यह लंगोटी भी साक्षात् मोक्ष मार्ग की बाधक हैं अत: उसका भी त्याग कर पूर्व दिगम्बर वेश को धारण करता है । यह दिगम्बर वेष अंतरंगशुद्धि रूप भावशुद्धि का परिचायक है । यह साक्षात् मोक्ष मार्ग का साधक हैं । इस प्रकार प्रभु ने परम्परा से मोक्ष मार्ग में सहायक श्रावक वृत्ति का उपदेश दिया । दोहा छन्द :
इस जे पालाहिं भाव सिउं यहु उत्तमु जिणषम्मु । जगमहि हबड़ तिन्ह तणउ सकपत्यउ नरजम्मु ।।१५।।
अर्थ- इस प्रकार जो श्रावक भाव पूर्वक जिन धर्म का पालन करते