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मदनजुद्ध काव्य
बंभु ईस हरि इंदु तइय नहु रखिम तिन्ह कल कवि बल्हु जैनु जगमहि अदलु सरकि अवरु तिसु करइ कोई अहि आणि हणिड सिरि आदि जिणि गयउ मयणु दहबट्ट हुइ ।।१३६।।
अर्थ-तब कन्दर्प (मदन) क्रोधित होकर चढ़ा-उछला । वह अपने बल के सामने किसी दूसरे के बल को कुछ नहीं समझता था । अन्य सुभठों को वह कुन्दता (दबाता) था । कुरलइ (रुलाता) कराता था, तसइ (वास) देता था, हसइ (हँसी उड़ाता) था और उनका अपमान करता था। पुष्पमयी धनुष को चढ़ाकर वह लड़ने लगा । सुभट दल भी लड़ने लगे, कलपने लगे | ब्रह्मा शिव, विष्णु इन्द्र, सभी देवता हैं फिर भी इनको उसने (मदन ने) सुख नही दिया (हमेशा) दुखी ही किया । बल्हु कवि कहते हैं कि जिनदेव ही संसार में अटल हैं । सरककर (घिसटकरखिसककर) उनकी बराबरी कौन कर सकता है । आदि जिनेन्द्र ने उस कन्दर्प के सिर पर ध्यान रूपी सर्प दे मारा जिससे वह दशवाट का (खण्डखण्ड) हो गया ।
व्याख्या—संसार में मदन के प्रध्य वापा और धनुष प्रसिद्ध हैं । उनसे कन्दर्प (मदन) ने सभी को अपने वश में कर लिया था । यही बात प्रभु के सम्बन्ध में भी समझो गई । तब कवि उसका विरोध करते हुए कहते हैं कि प्रभु तो अटल हैं। उन पर किसी का प्रहार नहीं हो सकता । मदन ने प्रहार किया तो उससे उसीका नाश होगा । वह भगवान का ध्यान रूपी प्रहार सहन नहीं कर सका और वहीं नष्ट हो गया । अत: संसार में प्रभु की बराबरी करने वाला अन्य कोई नहीं है । लोक में वीतरागता ही पूज्य है । प्रभु की वीतराग ध्यान मुद्रा के द्वारा ही काम जीता गया । प्रभु ने सबको ध्यान की शिक्षा दी । उसी से इन्द्रियों वश में होती है । इन्द्रिय-विजयी मानव ही दिगम्बर मुद्रा को धारण करता है । ऐसा वीर आत्म परीषह उपसर्गों से नहीं डरता। अटल रहकर उच्चश्रेणी का देव बन जाता है। वस्तु छन्द : दुसह बह मोह परछा भडु मयणु निकंदियड कलियकालु तव पाडि लीयड आनंदु निवर्सि मनि सिरि विवेक जस-तिलकु दीयउ जे बटपांडे धम्म के ते सब बाले वंदि यण खङ छुटायउ स्वामी रिसह जिणिदि ।।१३७।।