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मदनजुद्ध काव्य
धम्म सुरत भाट पदति दुंदुहि देव वाजति सुंदरि गीय गावंति सासण गुणो । भाजु भाजु रे मदन घुट आदिनाह सिरि सट देह कर दहवट प्रथम जिणो ।।१३५।।
अर्थ-(श्री जिनेन्द्र देव ने) कामदेव को पकड़कर उसकी कटक (सेना) को कन्दि (दबा) कर उसको तथा मोह राजा को बन्दी बनाया । चारों कषाय रूपी भटों को दबाकर निकन्द (नष्ट भ्रष्ट कर दिया) मद रूपी गजों का निपात (पतन) किया, तब मिथ्यात्व भी भाग चला | मेघरुपी घटा को मॉडकर (सजाकर) कुशील के छत्र को दूर कर दिया (भगवान के समवशरण में) धर्म-श्रुत के सूत्र रूपी भाट विरद पड़ते हैं । देवगण दुन्दुभि बजाते हैं । सुन्दरी देवियाँ भगवान के शासन के गुणों का गीत गाती हैं । इसलिए हे धूर्त मदन । भाग रे भाग । श्री आदिनाथ प्रभु तेरे सिर पर प्रहार करेंगे । वे प्रथम जिनेन्द्र तुझे दहवट (दशवट) का कर देंगे (तुझे भागने को मार्ग नहीं मिलेगा)।
व्याख्या-श्री आदिप्रभु ने मदन की सेना को रौंद डाला तथा मदन और मोह दोनों की बंदी बना लिया । मट. मोह, लोभ, ईर्ष्या, स्नेह आदि मदन की सेना है । इन उपरोक्त प्रकारों से मदन जीवों की आत्मा में प्रवेश करता है और सबको दुःखी बनाता है । प्रभुने सभी प्रकारोंको नष्ट कर डाला जिससे कि ये विकार किसी प्रकार की बाधा न दे पाएं । जब तक विवेक जागृत नहीं होता तभी तक ये वासनाएँ सताती है तथा ऊपर के गुणस्थानों में साधुके मैथुन संज्ञा कार्यरूप में नहीं रहती है आगे उपचार से भी छूट जाती है । संसार में इसी मैथुन राग के वशीभूत जीव परस्पर में लड़ते रहते हैं । यहाँ तक कि अपने कर्तव्य को भी भूल जाते हैं । इस मदन को प्रभु ने ही दूर किया । अतः प्रभु का नाम कामविजयी भी है । मोह को भी प्रभ ने पकड़ लिया । अर्थात उसे पकड़ने से संसार में भ्रमण कराने वाला कोई नहीं रहा । इसी से वे निमोही भी कहलाए । अत: आदि प्रभु देवाधिदेव कहलाए, मनुष्यकी गणना में नहीं रहे । षटपदम छन्द : चडिउ कोपि कंदणु अप्यबलि अण्णु न मण्णा कुंदा कुरला तसा हसा सुभटई अवगपणा ताणि कुसुम कोवंड भंड रंडहि जि सुहर दल