________________
मदनजुख काव्य ब्रह्मचर्य रूपी तलवारको धारण कर इस प्रकार के गम्भीर स्वर में बोलते हैं, जिस प्रकार नफीरी (सेना) के बाजे बजते हैं । वे प्रभु दया रहित हैं, अपने पौरुष से परिपूर्ण हैं, परन्तु हिंसा से दूर भागते हैं अपने उपशमके बल से नरों (कायरों) को भी शूरवीर कर (निर्भय वीर बना) देते हैं, ३४ अतिशय भी उन (प्रभु) के पास आए, जो तीन प्रकार की पर्याय वाले (भेद सहित थे) । उन्होने शुक्ल ध्यान रूपी मन्त्र से अपने मन को भी रोक लिया (वे ऐसे महान प्रभु हैं) अत: श्री आदिनाथ प्रभु के सम्मुख से है धूर्त, मदन! भाग रे भाग, वे प्रथम जिनेश तुझे दसवार कर देंगे (तेरा कहीं पता ही नहीं चलेगा ।
व्याख्या-भगवान को यहाँ धनी बताया गया है । उनके पास रत्नत्रय जैसी निधि है, जिसे संसार में सबसे बड़ा धन बतलाया गया है । प्रमु मदन के वश में आने वाले नही है । वश में वे ही आते हैं, जो निर्धन होते हैं । जिन्हें कुछ कामना होती है । भगवन् तो पहले ही रत्नत्रयके धनी हैं । फिर उनके पास ब्रह्मव्रत रुपी तलवार भी है, जो किसी के पास नहीं है, जिसके द्वारा सब हार जाते हैं । ब्रह्मव्रत के कारण मदन के कामबाण उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते तथा तरुणियाँ रंच मात्र भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकती |उनके आगम शब्द इस प्रकार से गम्भीर हैं मानों गहन वाद्य : बज रहे हों । उन स्वरों से काम के स्वर दूर भाग जाते हैं ।
उनके पुरुषार्थ से हिंसा भाग जाती है । वहां कोई जीव परस्पर में वैर-विरोध भाव नहीं रख सकता है । फिर हिंसा का काम ही क्या है । उनका कोई शत्रु नहीं है । उनके सम्मुख सभी में परस्पर मैत्रीभाव हो जाता है । उन्होंने शुक्लध्यान के मन्त्र से अपने मन को वश में कर लिया है । जिससे मन में कोई विकल्प ही नहीं आता । जहाँ मन में चंचलता होती है वहीं मदन प्रवेश कर सकता है । प्रभु का मन वश में हो गया है इसलिए वहाँ मदन के प्रवेश की सम्भावना ही नहीं रही । मन्त्रबल से सर्प भी कुछ नहीं कर सकता है । ऐसी अवस्था में मदन के पक्ष के कुमति, कुज्ञान आदि उसे युद्धकरने से रोकने लगे ।
घाल्या समरु कटक कंदि मोहराउ किया,दि कसाय चारि निकंदि वहि बि भउ । मद मयगल किया निपातु चलिङ मागि मिथ्यातु फेखिउ कुसील छातु मंडिय घडं ।