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________________ ९५ मदनजुद्ध काव्य (इसके पश्चात् आदि जिनेश्वर ने ) प्रचण्ड मोह को दुस्सह रूप से कसकर बाँधा और मदन भट को भी कसकर बाँधा तथा कलिकाल को भूमि पर पटक दिया । ( इसप्रकार युद्ध समाप्त होने पर प्रभु ने आनन्द से लौटकर विवेक के सिर रूपी मणि पर यश का तिलक दिया तथा जो धर्म के वट- पाण्डे ( मार्ग के चोर लुटेरे ) थे सबको बन्दी बना लिया । स्वामी ऋषभ जिनेन्द्र ने वेतन को होने से छुड़ा लिया । व्याख्या—यहाँ "क्षय" शब्द अपना विशेष महत्व रखता है । मोह और मदन चेतन को बिगाड़कर ऐसा ज्ञान हीन, विवेकरहित बना देते हैं । कि चेतना ज्ञानी नहीं रह जाता । अचेतन तुल्य बन जाता है । अतः प्रभु के प्रसाद से चेतन ने अपनी चेतनता प्राप्त कर ली अर्थात् वह यथार्थ ज्ञानवाला बन गया । यह प्रभु ने बड़ा ही उपकार किया जो चेतन को उबार लिया अर्थात् क्षय होने से बचा लिया। जिनदेव उन्हीं का नाम है जो इस मोह, मदन को जीतते हैं । कहा गया है— चित्रकिमत्र यदि ते त्रिदशाड्ग नाभिनीतमनागपि मनो न विकारमार्गम्" । प्रभु शत्रु पर विजय प्राप्त करके आनन्दपूर्वक लौट आए और अपने शिष्य विवेक के मस्तिष्क पर यशः कीर्तिरूप तिलक किया । महान् पुरुषों की यही नीति होती है कि वे अपने अधीन को अपनी बराबरी का बना लेते हैं । दर्शन शास्त्र में कहा है— सत्वमेवासिनिर्दोषोः । अर्थात् निर्दोष होने से तुम्ही महान हो । सबसे बड़ा दोष में रागद्वेष है । इसी से संसार बना है जो मुक्ति होना चाहता है वह मोह रागद्वेष को जीतकर जिन बनता है, जो विषयसुखों के अभिलाषी हैं वे देव नहीं है, वे दिगम्बर नहीं बन सकते । जिनदेव ही सर्वदेवाधिदेव हैं--- मानुषीप्रकृतिमम्यतीतवान् देवतास्वपि देवता यतः । " दर्शन शास्त्र देव में थोड़ा सा भी दोष पसन्द नहीं करता है । जब आत्मा में अनन्त चतुष्टय की पूर्णता होती है। तभी वह परमात्मा कहलाता है । उनके वचन युक्तागम से अविरुद्ध होते हैं । तब वचन पुद्गल होने पर भी वचन से ही पुरुष की परीक्षा होती है। इस रूपक ग्रंथ में निर्दोषता के स्थान पर निर्विकारिता से महिमा गाई गई है । आदीश्वर प्रभु का चेतन ही सच्चा चेतन है । विवेक का चेतन, चेतन है । उसकी श्रद्धा में चेतन, चेतन बना हुआ है । इस प्रकार मोह - कन्दर्प का घनघोर युद्ध हुआ और प्रभु जीत गए । शुद्धात्मा की एक बार शुद्धता होने पर फिर अशुद्धता का विकार नहीं होता है। जैसे सोना कीचड़ में पड़े रहने पर भी कीचड़ में नहीं लिप्त होता है। इसी प्रकार कलिकाल का भी 1
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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