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मदनजुद्ध काव्य
वह भयंकर स्थान है ।
जाहिं हंक कंक पक्खिय निनेह जिन्ह चुंच संडासी भखहि देह जितु लहरि अगनि झाला तपाइ खिण माहिं सतनु थालहिं जलाइ ।।७७।।
अर्थ-जहाँ ढेक-कंक नामके पक्षी निनाद (ध्वनि) कर रहे हैं (जो भयंकर हैं) उनकी चोंच संडासी के समान हैं, (जिससे) वे इन (नारकियों) के शरीरको खाते हैं । जितु (जहाँ) उन्हें अग्निकी ज्वालाकी लहरें तपाती हैं । गरम गरम वायु चलती है, जो सबको तपाती है । क्षणभरमें वह ज्वाला उनके शरीरको जला देती है ।
व्याख्या- इस गाथामें मांसाहार तथा उष्णताजनित क्षेत्रके दुःखोंका वर्णन किया गया है । जीव यहाँ पर जिस प्रकारका पाप कार्य करता है । उसको उस नरककण्डमे वैसा ही फल भोगना पड़ता हैं । जो यहाँ जिस प्रकारके जीवोंका माँस भक्षण करते हैं । वे वहाँ उसी प्रकारके पक्षियोंकी चोंच द्वारा भक्षण किए जाते हैं । यह संसार पॅच पापोंका घर है । पाप साक्षात् तीव्र कषायों द्वारा ही होते हैं । तीब्र कषाय पहले अपने ही ज्ञान प्राणोंका घात कर देती है फिर दुर्गति (आकुलता-तृष्णा) में ढकेल देती है । यह आत्मा ही पाप करके नारकी और तिर्यच बनता है । अन्य दर्गति भी भविष्यमें होती हैं । यही आत्मा अपना अशुभ-शुभ करने वाला ईश्वर है । अन्य कोई ईश्वर फलदाता नहीं है । अतः पापोंसे सदा दूर रहो । कहा भी गया है
"सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता परोददातीत्ति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रप्रथितोहि लोकः ।।" कहिं मगर-मच्छ ए दुट्ठ जीव तिसु भिंतरि जे पुणु लेहि दीव जे परमा धरमी वधिक जाणि ते घालि जालु कढति ताणि ।।७८।।
अर्थ-उस (कुण्ड) में कहीं-कहीं मगरमच्छ रूप दुष्ट जीव भी हो जाते हैं तब उस (कुण्ड) के जो परम अधर्मी हिंसक दुष्टजीव हैं, वे दीपक लेकर तथा जाल डालकर उन्हें काद (निकाल) लेते हैं ।
व्याख्या-संसारमें जो हिंसक-कसाई मगरमच्छको पड़कते हैं । वे नरकमें मगर-मच्छ रूपमें उत्पन्न होते हैं । नरकमें सूर्यका प्रकाश नहीं है, सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार है । अत: कसाई रूप जीव पहले दीपक