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मदनजुद्ध काव्य
अर्थ – मदन पत्नीके द्वारा किए गए अनादरको नहीं सह सका और प्रचण्ड तमक ( रोष) से भर गया । ( रोषके कारण वह भरे कुण्ड ( नरक कुण्ड) में उतर गया । वह घोर कुण्ड दुस्तर और अगाध था तथा जल और रुधिर से परिपूर्ण अथाह था ।
व्याख्या - संसार में प्रायः यही देखा जाता है कि अनादर पाकर पुरुष कूप आदिमें पड़कर आत्मघात कर लेते हैं। नारियाँ भी आत्मघात कर लेती हैं ! के दुःख से भी दुःखको बड़ा मानते हैं। उन्हें यह विवेक नहीं रह जाता कि वह नरक कुण्ड कैसा गन्दा है ? मैं इसमें से निकल पाऊँगा अथवा नहीं । कविने प्रस्तुत गाथामें उत्प्रेक्षाके द्वारा इसीकी कल्पनाकी है। उन्होंने नारी रूपी नरककुण्डका वर्णन किया हैं- " वह घोर हैं, दुस्तर है, अगाध हैं, जल रूपी रक्तसे परिपूर्ण है । उसकी थाह पाना बड़ा कठिन है ।" नरकभी ऐसा ही हैं । उसी नरककुण्डमें मदन उतर गया ।
भय भीम भयंकर पालि
आ' सातवेयणी
नलिणि
जाह
ताह
तहिं विरख तिक्ख करवाल पत्त
झडपडहिं तुट्टि छेदहिं ति गर ।। ७६ ।।
अर्थ - भय से भरी भयंकर उस कुण्डकी पाली (तट) है । असातावेदनीयके उदय रूप ही उसकी नलिनी (कमलिनी) हैं । वहाँके वृक्ष तीक्ष्ण तलवारके समान पत्ते वाले हैं, जो गिरकर (नारकियोंके ) शीघ्र ही शरीरको छेद डालते हैं ।
व्याख्या – कोईभी क्षेत्र हो, वहाँ नदी-नाले एवं वृक्ष होते ही हैं । फिर यह तो एक अदभुत कुण्ड है । जिस प्रकार कुण्डमें जल होता है उसी प्रकार यह नरक कुण्ड भी रक्त रूपी जलसे भरा हुआ है। उसके किनारे भयंकर कांटेदार हैं, जिससे कोई जीव भागकर दूसरी जगह नहीं जा सकता वहाँ प्रतिक्षण असातावेदनीय कर्मका उदय रहता है । एक भी क्षण सुख नहीं है। कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, सुखका कारण नहीं है? द्रव्य तो कुण्ड, जल, वृक्ष आदि हैं। क्षेत्र वहाँके वृक्षों की भूमि हैं, जो तलवार तुल्य तीक्ष्ण पत्र वाली है। जिनके द्वारा शरीर छिन्नभिन्न हो जाता है । कमलिनी वेल असातावेदनीय रूप काल है । इनके भाव भी बिगड़ जाते हैं । अतः सुख कहीं भी नहीं हैं । इस प्रकारका १. झडि २. करि