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मदनजुद्ध काव्य
लेकर मगर मच्छोंको खोजते हैं तब उन्हें जालमें फँसाकर बाहर निकाल लेते हैं और मार डालते है । थोड़ी सी जिह्या इन्द्रियके स्वादवश अनेक प्रकारके कष्टोको सहन करते हैं । असली बन्ध यहाँ कषायोका बन्ध है। पापके समान पुण्यका भी बन्ध है । दोनों एक ही समान बेड़ी हैं । हमारी श्रद्धामें दोनोंको छुड़ानेका ध्येय होना चाहिए । कहा गया है
निजार्जितं कर्मविहाय देहिनो न कोपि कस्यापि ददाति किंचनो, विचारयन्नेवमनन्यमानस: परोददातीति विमुच्यशेमुषीम् ।।
पुण्यकोभी पाप कहने वाले संसारमें विरलें है"पाप कहत हैं पुण्यको ते विरले संसार । ।" इक लेइ कुहाडु कुटहि' गहीरू करि हुषु धार सती जहिं तपा तपहिं नितु लोह थंभ तिन्हि लावहिं अंगि जि खलिय वंभ ।।७९।।
अर्थ-कोई एक (नारकी दुष्ट ) जीव कुहाडु (कुल्हाड़ी) लेकर गम्भीर रूपसे कूटते हैं और शरीरको खण्ड-खण्ड कर डालते हैं ! जहाँ तपा (अग्नि) से नित्य तपे हुये लोहेके स्तम्भ हैं, वे उन तप्त स्तम्भोंसे ब्रह्मचर्यसे स्खलित होने वाले पापियोंके शरीरको लगाते हैं ।
व्याख्या- इस गाथामे ब्रह्मचर्यसे सखलित होने वाले लोगोंकी दुर्दशाका वर्णन किया गया है । जैन दर्शन यही कहता है कि पापका फल पुण्यरूप कभी नहीं हो सकता । पापका फल तो भोगनेसे अथवा तपस्या करनेसे ही छूटेगा । केवल यह कहनेसे कि भगवन्, हम आपकी भक्ति करते हैं, हमें पाप बन्धनसे छुड़ाओ, पाप छूट नहीं सकता । फल भोगनेमें यह स्वयं ही अकेला है । जैसे
कोदयान्भवति मरणजीवित दुःख सौख्यं । स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं । परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ।
अतः अपनी शरण ही शरण हैं । प्याइयइ सुतांबड ताइ सुख मदि मांसि जि हुंति यजीव लुद्ध तहिं घाट विषम कुंपी गहीरु तिस माहिं पचावाहि ले सरीरु ।।८।।
अर्थ--जो मॉस-मदिरा के खाने में (जीभ के) लुब्ध जीव हैं, उन्हें १. कुहहि होरु, कूकडि अहोर